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Showing posts from 2018

मन को विषय वासनाओं से बचाये रखने के लिए सत्संग बोहत ज़रूरी है ।

नित खरसान लोहाघुन छूटे, नित की गोष्ट माया मोह टूटे । जैसे लोहे के औजार में हवा और पानी के संयोग से जंग लग जाता है परन्तु उसे मांजते रहो तोह जंग छूटता रहता है और औजार चमकता रहता है । वैसे ही हमारे मन की दशा है । पूर्व वासनाएँ, मन इंद्रिय, विषय विकारों, प्राणी तथा नाना व्यवहार के संबंध में मनुष्य के मन में मलिनता आने की संभावना बनी रहती है । इनसे साधक तभी बचा रह सकता है जब वह निरन्तर साधु संतों सज्जनों की संगत करे और उनसे स्वरूप ज्ञान, सदाचार और सद्गुणों की चर्चा करता व सुनता रहे । संत सज्जनों के उत्तम आदर्श देखने व उनकी वाणियों को सुनकर उनका मनन करने से साधक का मन शुद्ध बना रहता है । गृहस्थ भक्तों से कहा जाता है कि वह प्रतिदिन अपने घर में अपने पूज्य सन्तों के ज्ञान उपदेश की वार्ता एवं सत्संग करते रहें । इन बातों का रोज़ रोज़ उनके मन पर प्रभाव पड़ेगा । परन्तु बोहत कम ही साधक ऐसा करते हैं । हर गृहस्थ को अपने घर में नित्य एक समय सत्संग का आयोजन करना चाहिए और पूरे परिवार को इसका लाभ लेना चाहिए अगर आस पड़ोस के लोग भी इसमें शामिल हों तोह और भी अच्छा है । फिर गांव या मोहल्ले में भी सत्संग ...

जो शब्द सब शब्दों का सार है, उसको ग्रहण करना चाहिए ।

शब्द हमारा तू शब्द का, सुनि मति जाहो सरक । जो चाहो निज तत्व को, तोह शब्दहि लेह परख ।। कबीर साहिब की वाणियां देश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से ऊपर व परे हैं । अतः मानव मात्र उनका अधिकारी है । वह कोई ऐसा कर्मकांड नहीं बता रहे हैं जिसको केवल एक समुदाय ही मान सके । उनकी वाणियां जन जन के लिए महाऔषधि हैं । शब्द हमारा तू शब्द का, ध्यान देने योग्य वाक्य है । साहिब कहते हैं जो हमारे शब्द हैं इसका केवल तू अधिकारी है । यहां शब्द से अर्थ है उपदेश । कबीर साहिब कहते हैं उनके दिए उपदेश केवल उनके नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज के लिए हैं । क्योंकि यह परम सत्य हैं । इसलिए उनके उपदेशों का मानव मात्र अधिकारी है । जो सत्य होता है वह सबका होता है । हवा, पानी, आकाश, सूर्य आदि सबके लिए हैं । इसी प्रकार उनके उपदेश सबके लिए हैं । सुनि मति जाहो सरक, बोहत महत्वपूर्ण है । संसार में लोग अपने गुरू के वचनों को ऐसे ही सुन कर उसको छोड़ देते हैं । वह उनका आचरण नहीं करते । क्योंकि आचरण करने के लिए त्याग की जरूरत है और हर मानव कम ज्यादा विषयासक्ति है । विषय त्याग के मार्ग में बाधक हैं । विषय से अर्थ केवल काम ...

परमात्मा साकार है या निराकार या दोनों से परे ? जानें

सभी के मन में यह विचार उठता है कि परमात्मा साकार है या निराकार । तोह इस द्वंद को मिटाने के लिए कबीर साहिब वाणियों में क्या कहा है आईये जानते हैं । मन की शोभा ज्ञान है, तन की शोभा भेष । साहेब एक मन समुझि ले, चंहु जुग ऐसो रेष ।। साहिब कह रहे हैं कि ज्ञान के द्वारा मन को सुसंस्कृत एवं निर्मल रूप से शुद्ध या पवित्र किया जाता है । तभी यह मनुष्य के लिए हितकारी एवं कल्याणकारी हो पाता है । भेष के द्वारा तोह शरीर की बाह्य शोभा बढ़ाई जाती है । मात्र भेष अच्छा बना लेने से ऊपर से भले ही मनुष्य सुंदर एवं आकर्षित पूजनीय समझ पड़े, परन्तु सद्ज्ञान न होने के कारण वह पूज्य नहीं हो सकता । वह परमात्मा किस स्वरूप का है ? इस भेद को अच्छी तरह एकाग्र होकर समझ लीजिए । वह परमात्मा जैसा कि युग युगन से सर्गुण निर्गुण का द्वंद फैला हुआ है, वह परमात्मा सर्गुण और निर्गुण दोनों से ही परे है । आगे कबीर साहिब कहते हैं - एक पुरूष वह आदि है, निर्गुण सर्गुण बनाय । एक एक आशा नहीं, एको गयो भुलाय ।। साहिब कह रहे हैं एक चेतन्य आत्मा ही आदि पुरूष है उसी के द्वारा इस जड़ जगत की रचना हुई है । उस चेतन्य आत्मा के द्वारा ...

सार शब्द क्या है ? जानें सार शब्द का शाब्दिक ज्ञान

शब्द स्वरूपी ज्ञान मय, दया सिंधु मति धीर । मदन सकल घट पूर है, करता सत्य कबीर ।। सत्य शब्द महा चैतन्य को शब्द स्वरूप बतलाया है । सो हमें उसका ज्ञान कैसे निश्चय होगा । क्योंकि शास्त्रों ने शब्द को आकाश का गुण ठहराया है । कोई कोई सार शब्द को निर्णय भी कहते हैं । वह तीन प्रकार के हैं - वर्णात्मक- जैसे अ, आ, अ: से लेकर क ख ग, घ ङ से क्ष त्र ज्ञ बावन अक्षर हैं इनको क्षर आकार कहते हैं । ध्वनात्मक- तत्वों के संसर्ग से होने वाले अनहद दशनाद इत्यादि तथा अक्षर "आकार" होता है , वह जीव आत्मा है वह भी इस शरीर में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार दशों इन्द्रियों और पंच वायु में व्याप्त है । इसके बिना मन बुद्धि आदि जड़ है । स्वयंसिद्ध- स्वतः शब्द अविनाशी विदेह स्वरूप निःअक्षर सार शब्द जो न किसी से बनता है और न ही बिगड़ता है, न ही उसका संयोग होता है और न ही वियोग, वह अखण्ड हर वक्त अपने स्वशक्ति से हमेशा गर्जना कर रहा है और कर्ता है , उसका कोई आदि अंत नहीं है । शब्द अखण्ड और सब खण्डा । सार शब्द गर्जे ब्रह्मण्डा ।। वह सब आत्माओं में समाया हुआ है । उसके बिना कोई आत्मा प्रकाशित नहीं हो सकती ।...

मरना कैसा होना चाहिए, क्या है मरने की सही कला ?

मरते मरते जग मुवा, मुये न जाने कोय । ऐसा होय के न मुवा, जो बहुरि न मरना होय ।। कबीर साहिब की इस साखी का विषय है कि मरना कैसा हो ? और हमारे कबीर विज्ञान आश्रम का मूल ज्ञान भी यही है कि मरना कैसा हो ? कबीर साहिब कहते हैं कि मरते तोह सब हैं लेकिन मरने- मरने में अंतर है । लोग मरने की कला नहीं जानते तरीका नहीं जानते । प्रश्न हो सकता है कि मरने का तरीका क्या है ?  क्या फांसी लगाकर ? आग में या जल में कूदकर या ट्रेन से कटकर या ज़हर खाकर ? उत्तर में समझना चाहिए कि यह सब मरने के तरीके नहीं हैं । यह अब आत्महत्या के तरीके हैं । मरने का तरीका है जीने का अच्छा तरीका । जीवन में प्रेम और अनासक्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा होना ही जीने का अच्छा तरीका है । प्राणी मात्र के प्रति प्रेमपूर्वक और समस्त प्राणी, पदार्थ, पद, प्रतिष्ठा, पांचों विकारों के प्रति अनासक्ति रहना ही जीवन का सबसे अच्छा तरीका है । प्रेम में स्वर्ग है और अनासक्ति में मोक्ष । आप कहेंगे कि जिसके मन में प्रेम होगा उसके मन में अनासक्ति नहीं होगी और जिसके मन में अनासक्ति होगी उसके मन में प्रेम नहीं होगा । तोह इसका उत्तर यह समझ लेना चाह...

अपनी स्वरूपस्थिति के महल में निवास करो, वह महल परम् शांति देने वाला है ।

शब्द हमारा आदि का, पल पल करहू याद । अंत फलेगी माँहली, ऊपर की सब बाद ।। कबीर साहिब जीव को बारम्बार बोध देते हैं । वह जीव को अपनी वाणियों से जगाकर अपने स्वरूप ज्ञान व स्वरूप स्थिति की ओर खींचते हैं । साहिब कहते हैं मैं तुमको स्वरूपज्ञान की याद दिलाता हूं । अपने स्वरूप को पल पल याद करो । स्वरूप ज्ञान वाणियों का चिंतन मनन करने से जीव स्वरूप ज्ञान के प्रति दृढ़ हो जाता है । इसका फल यह होता है कि जीव माँहली हो जाता है यानी अपने निज स्वरूप के महल में भवन में निवास करने लगता है । जीव का महल क्या है ? क्या जो ईंट, सीमेंट, लोहे या लकड़ी से खड़ा कर लिया यह जीव का महल है ? बिल्कुल नहीं । यह तोह इस शरीर के रहने के लिए दो चार दिन का मुसाफिर खाना है । जीव का महल तोह उसकी अपनी स्वरूप स्थिति है । आत्मस्थिति या स्वरूप स्थिति ऐसा पक्का महल है जो न कभी गिरने वाला है न कभी छूटने वाला है । जेठ की दोपहर में जलता, वर्ष में भीगता, पोह की सर्दी में कांपता मनुष्य जब अपने मकान में आ जाता है तोह कितना आराम अनुभव करता है, कितना आनंद अनुभव करता है, यह सभी का अपना अपना अनुभव है । यह तोह क्षणिक है । क्योंकि प...

सतगुरू कौन होता है ? कबीर साहिब ने पूरे सतगुरू की क्या पहचान बताई है, जानें ...

शब्द शब्द सब कोई बखानै । शब्द भेद कोई नहीं जानै ।। ज्ञानी गुणी कवीश्वर पण्डित । सबहिन कीन्ह शब्द को मंडित ।। शब्द सुरति आवै संसारा । आपै समरथ रहे नियारा ।। शब्द अगम गति पावै नाहिं । भूलि रहे सब भर्मे माहिं ।। जब साधक जिज्ञासु भलि भांति सतगुरु के विचार सत्संग से सतुंष्ट हो जाए, तब सतगुरू का उपदेश ग्रहण करे । उपदेश के समय यदि सतगुरू वाणी वचन द्वारा मन्त्र जप अनहद जप आदि जैसी कोई भी साधना का संकेत दे तोह कदापि स्वीकार न करें । अपितु इनसे प्रेम प्रार्थना के माध्यम से सार शब्द की जानकारी लें । यदि इतने पर वह सार शब्द का उपदेश करने में असमर्थ रहे तोह वह सतगुरु कदापि नहीं है । वह तोह सतगुरू का भेस धारण कर जीवों को धोखे में डालने वाला मन मुखी मत वाला गुरू है जिसे काल एजेंट भी कहा गया है । सतगुरू बनाने से पूर्व पूरी छानबीन कर लें यदि इसके बाद भी कभी भूल त्रुटि हो जाये तोह गुरू का त्याग करने में संकोच नहीं करना चाहिए । कबीर साहिब कहते हैं - जग लग मिलै शब्द नहि साँचा । कीजै गुरू एक से पाँचा ।। हां यदि सार शब्द के भेदी सतगुरु का त्याग करोगे तोह अवश्य ही अपराधी कहलाओगे और सज़ा पाओगे...

मन और इंद्रियों की विषय वासना को त्यागो, नौजवान लोग जरूर पढ़ें

नैनन आगे मन बसे, पलक पलक करे दौर । तीन लोक मन भूप है, मन पूजा सब ठौर ।। भावार्थः मन नेत्रों के आगे बसता है और पलक पलक दौड़ लगाता है । सभी जीवों के ऊपर मन राजा बन बैठा है । सब जगह मन की ही पूजा हो रही है । व्याख्या: जागृति अवस्था में मन की वृति वस्तुतः नेत्रों के सामने ही रहती है । मनुष्य नेत्रों से जो जो देखता है उसी में उसका मन चला जाता है और उसे जो दृश्य प्रिय लगता है उसका वह मनन करने लगता है । रूप की तरह शब्द विषय भी ज्यादा संवेदनशील होता है । शब्दों को सुनकर मन उसका मनन करता है । मनुष्यों में गंध की आसक्ति ज्यादा नहीं होती । स्पर्श और रस इन दो विषय इंद्रियों को छूहकर ही मन आंदोलित रहता है । परंन्तु रूप और शब्द दूर से ही मन को प्रभावित करते रहते हैं । दृष्टि से देखा जाए तोह शब्द विषय का जिसे कबीर साहिब बावन कहते हैं का सबसे ज्यादा प्रभाव है । यह नाना किताबों से साधक और बाधक के पास पहुंचते रहते हैं । इस साखी में कबीर साहिब ने नेत्रों के विषय के संबंध में मन के पलक पलक रमने की बात कही है जो कि परम सत्य है । जागृति अवस्था में नेत्र प्रायः खुले रहते हैं और जो जो इनके सामने आता ...

सतगुरू के बिना मनुष्य की क्या हालत होती है, जानें ...

जाको सतगुरू न मिला, ब्याकुल दहूँ दिश धाय । आंख न सूझे बावरा, घर जरै घूर बुताय ।। सतगुरू कबीर साहिब इस साखी में बता रहे हैं कि जिस जीव को सतगुरु की शरण नहीं मिलती वह ब्याकुल होकर दसों दिशाओं में घूमता है फिर भी मार्ग नहीं पाता । गुरू और सतगुरू में अंतर होता है, माता पिता, दाई, विद्या पढ़ाने वाला, एक एक विद्या देकर या कला सिखाने वाला या किसी मत की दीक्षा देकर सन्मार्ग पर लगाने वाले यह सब गुरू हैं । गुरू बोहत होते हैं एक गुरू के बाद दूसरा गुरू स्वीकारा जाता है । परन्तु सतगुरू केवल एक ही होता है वह दो नहीं हो सकते । जिसको सतगुरू की शरण मिल जाए उसको फिर कोई दूसरा सतगुरू नहीं ढूंढना पड़ता । गुरूओं की शरण में जाकर जब तक यतार्थ बोध न मिला तब तक समझो सतगुरू नहीं मिला । सतगुरू मिलने पर सारी भ्रांतियां मिट जाती हैं और यथार्थ बोध हो जाता है । कबीर साहिब कहते हैं जिसको सतगुरू नहीं मिला वह अशांत होकर दशों दिशाओं में भटकता है । पूर्व, पच्छिम, उत्तर, दक्षिण, अग्नेय, ईशान, वायव्य, नैऋरती, ऊपर और नीचे यह दस दिशाएँ मानी गयी हैं । विवेकहीन प्राणी परमात्मा या मोक्ष को पाने के लिए दशों दिशाओं में भट...

मन क्या है ? जानें ...

महमता मन मारिले, घट ही माहिं घेर । जबहिं चाले पीठ दे, आंकुस दे दे फेर ।। यह मन नीचा मूल है, नीचा कर्म सुहाए । अमृत छोड़ मान करि, विष ही प्रीत करि खाय ।। मन कोई स्वतः सिद्ध वस्तु नहीं है उसके आधीन रहने वाली दशो इन्द्रियों के साथ वह एक काल्पित और जड़ पदार्थ है, चेतन्य के सत्ता से ही प्रकाशित है । यद्यपि वासना मन को होती है तोह भी उसके साथ - साथ अल्पित आत्मा भी घसीटी जाती है । जैसे जल में सूर्य का प्रतिबिंब पड़ने से वह चमकने लगता है, जल तोह जड़ रूप ही है, उसमें प्रकाशित होने की स्वतंत्र शक्ति नहीं है, ऐसे ही मन को जानना चाहिए । क्योंकि मन भी जड़ है वह अपने आप कुछ नहीं कर सकता लेकिन चेतन के सम्बंध से नाना प्रकार का संकल्प विकल्प करता रहता है । आत्मा महारथी है, मन सार्थी है, इंद्रियां घोड़े हैं , मन जिधर इन्द्रियों रूपी घोड़े को हाँकता है उधर ही घोड़े दौड़ते हैं और शरीर रूपी रथ भी उधर ही खिसकता चला जाता है । मन आत्मा के सत्ता आधीन होने पर भी स्वेच्छा अनुसार गति क्रीड़ा करता रहता है । मन ऐसा प्रबल है कि नाना प्रकार के उपाय करने पर भी वश में नहीं होता । यह भी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और अस...

सत्य क्या है ? जानें ...

सत्य क्रिया निर्वाण है, है तन मन से भिन्न । मन पवन दृढ़ कर गहे, सत्य नाम निज चीन्ह ।। सत्य क्या है ? कैसा है ? कबीर साहिब कहते हैं सत्य नाम रूप रहित है, उसे किसकी उपमा दूं ? यह सत्य परम प्रकाशित है, सर्वत्र है, तन मन से अलग है । जहां सूर्य नहीं, नक्षत्र पति नहीं, नक्षत्र नहीं, जिसके जानने से देखने से जो फल सिद्ध होता है, दूसरा और सिद्ध नहीं । जिसके सुख से बढ़कर अन्य सुख नहीं , जिसके समान अन्य सौंदर्य अथवा ज्ञान नहीं । जिसके दर्शन से और श्रेष्ठ दर्शन नहीं, जिसके दर्शन होने से अन्य किसी के दर्शन की अभिलाषा नहीं, दर्शन से मतलब अनूभूति से आंखों वाले दर्शन से नहीं । वही सत्य है । इसी से राम, कृष्ण आदि प्राणी और अन्य जीवित प्राणी हुए हैं । इस सत्य दर्शन के लिए हर प्राणी को सदा तत्पर रहना और उत्साही बनकर मंथन करते रहना चाहिए । मथे शब्द जब आत्म जागे, टरे न दसवें दरसों । सत्य की खोज़ ही ईश्वर की खोज़ है । ईश्वर की हस्ती में विश्वास न रखने वाले नास्तिक भी सत्य पर विश्वास करते हैं । ईश्वर के नाम तो अनन्त हैं , लेकिन सत्य सर्वोपरि नाम है , सत्य की प्राप्ति के साधन कठिन हैं इससे यह नहीं क...

संसार रूपी काजल की कोठरी में से बाहर निकलने में केवल मनुष्य समर्थ है ।

काजल केरी कोठरी, बुड़ता है संसार । बलिहारी तेहि पुरूष की, जो पैठि के निकरनहार ।। जब जीव शरीर धारण करता है, जन्म लेता है तोह धीरे धीरे संसार के विषय विकार उसको लगते जाते हैं । दिन जितने बीतते जाते हैं वह माया में निरंतर डूबता जाता है । बालक, किशोर, अधेड़, वृद्ध जो भी उसे मिलता है वो प्रायः विषय विकारों का ही पाठ उसे पढ़ाते हैं । उसे नये नये दुर्गुण और बुराइयां सीखाते हैं । इस संसार में प्रवेश करना मानो अंधकार में प्रवेश करना है । आप जिधर देखोगे मन को खराब करने वाली बातें देखोगे सुनोगे । ज्यादातर लोग रजोगुण और तमोगुण में लिपटे हुए नज़र आएंगे । इनकी संगत का भी यही पप्रभाव होता है, इनकी संगत में पड़कर कितने ही सज़्ज़न लोग बिगड़ जाते हैं । कहने का भाव है कि जीव देह करके काजल की कोठरी में गिर पड़ता है अर्थात माया के मुंह में गिर जाता है । बलिहारी तेहि पुरुष की, जो पैठि के निकरनहार । कबीर साहिब कहते हैं कि मैं जीव के बलिहारी जाता हूँ जो इस काल कोठरी में आकर खुद को इससे निकाल लेता है । मैं उस पुरूष पर कुर्बान हो जाता हूँ । यहाँ पुरूष से मतलब स्त्री पुरूष से नहीं है बल्कि चेतन जीव आत्मा को प...

परम् आत्मा और जीव आत्मा के बारे में जानें ।

ज्यों पये मद्धे घीव है, त्यों रमैया सब ठौर । कथता बकता बहुत है, मथि काढ़े सो और ।। इस बोलते का खोज़ कर, जिसका इलाही नूर है । जिन प्राण पिंड सवारिया, सो हाल हज़ूर है ।। गज वाजि द्वारे झूमते, सो रातों का जहूर है । काजी पण्डित वेद पढ़ि, करता फिरे मगरूर है । मुर्शिद शब्द चेता नहीं, यही तोह गफलत कूर है ।। कहे कबीर घट चेत ले, तेरे में तेरा नूर है । नूर पर जहूर दर्शे, जब साहिब भरपूर है ।। संसार में रहने वाले जीवों को मोक्ष मार्ग से रोकने वाली माया बड़ी प्रबल है, तथा अनेक प्रकार से कष्ट देने वाली है, यह माया आत्मा के स्वरूपों को भूला देती है । जीवात्मा - सत, रज, तम यह तीन गुण और शुभाशुभ कर्म का कर्ता भोक्ता इस सबके सहित जो त्वम पद अविद्या के बंधन में चेतन आत्मा है उसे जीव कहते हैं । परमात्मा - यहां महाचेतन सत्यपुरुष परमात्मा प्रकृति, जीव ईश्वर, ब्रह्म, ज्योति, अनहद और बावन अक्षरों आदि से परे है । इसी को सार शब्द, सत्यनाम, निःअक्षर आदि नाम भी कहते हैं । वह उपमा रहित है इसी का उपदेश कबीर साहिब का है । साखी - आत्म चिन्ह परमात्म चीन्हे, संत कहावे सोई । यहे भेद काया से न्यारा, जाने व...

बावन अक्षरों के मायाजाल को ज्ञान की कसौटी द्वारा विवेक से परखना चाहिए ।

हरि ठग ठगत ठगौरी लाई, हरि के वियोग कैसे जियहु रे भाई ।। को काको पुरूष कौन काको नारी, अकथ कथा यम दृष्टी पसारी ।। को काको पुत्र कौन काको बाप, को रे मरे को सहे संताप ।। ठगि ठगि मूल सबन का लीन्हा, राम ठगौरी काहू न चीन्हा ।। कहहि कबीर ठग सो मन माना , गई ठगौरी का जब ठग पहिचाना ।। बीजक के इस शब्द में कबीर साहिब ज्ञान को हरने वाले हरि शब्द के बावन अक्षर पौ माया तथा शब्द मन्त्रों का उपदेश करने वाले गुरु लोगों के प्रति संकेत किया है । इस संसार में परमात्मा के वियोगी जिज्ञासु साधकों को अज्ञानी गुरुवों लोगों ने बावन अक्षरों के अज्ञान के द्वारा उनके आत्म ज्ञान को ठग लिया है । अतः ऐसे परमात्मा के प्रेमी वियोगी साधक किस प्रकार सुख शांति पा सकते हैं । इस संसार में न तोह कोई किसी का पति है और न कोई किसी की स्त्री । स्वस्वरूप में सब चाहे वह पुरूष हो या स्त्री एक चेतन आत्मा ही है । अज्ञानी गुरुवा लोगों ने स्त्री पुरूष जैसे द्वंदों का झगड़ा फैला दिया है । इसी तरह न तोह कोई किसी का पिता है और न किसी का पुत्र । माता पिता, पुत्र का झूठा नाता दिखावटी है । अज्ञान वश पुत्र की मृत्यु पर पिता द...

मन का काम ही है विषयों में उलझना, पर मन को काबू करना हमारे हाथ में है ।

मन स्वार्थी आप रस, विषय लहर फहराय । मन के चलाये तन चलै, जाते सरबस जाय ।। मन स्वार्थी है, खुदगर्ज है । यह सदैव अपने रस में डूबा रहता है । उसे सदा विषयों का स्वाद प्रिय है क्योंकि मन अनादिकाल से विषयों में ही आसक्त (डूबा हुआ) है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पांच विषय हैं । सामान्य मनुष्य के मन में हर समय कोई न कोई विषय की लहर विद्यमान रहती ही है और वह उसी में डूबा रहता है । साधारण मनुष्य भी हर समय अपने मन को रोकता है, जिस विषय से वह अपने मन को रोक नहीं पाता, तब वह कम से कम अपनी इंद्रियों को तोह रोक ही लेता है । मनुष्य का मन जिस तरह हर क्षण सोचता है, अगर इंद्रियां भी उसी अनुसार चलने लग जाएं तोह मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । जब किसी एक विषय में मनुष्य का मन निरंतर लगा रहता है तोह उस विषय के प्रति उसे मोह जकड़ लेता है और मनुष्य उस विषय के आगे असहाय होकर उस में बह जाता है । कोई साधारण गृहस्थी व्यक्ति या साधक व्यक्ति, जब वह  स्त्रियों के कामोद्दीपक अंगों के सहित उनका स्मरण करता रहेगा, वह एक न एक दिन अपने पद से गिर जाएगा । मन विचलित होने पर शरीर विचलित हो जाता है, जब मन और तन दोन...

अपने खुद के आत्मस्वरूप से बाहर कोई परमात्मा नहीं है ।

अस्ति कहौं तोह कोइ न पतीजे, बिन अस्ति का सिद्धा । कहहिं कबीर सुनो हो सन्तों, हीरी हीरा बेधा ।। मनुष्य का आत्म अस्तित्व ही सर्वदा सत्य व विद्यमान (अस्ति) वस्तु है । जब कोई उसकी ओर सुझाव देता है तोह कोई विश्वास नहीं करता । लोग अत्यंत मिथ्या व काल्पनिक वस्तु का पक्ष देकर सिद्ध बन रहे हैं । कबीर साहिब कहते हैं सुनो सन्तों , जैसे हीरे के कण ही हीरे को काट देते हैं उसी तरह जीव के मन से पैदा हुई कल्पना ही उसका पथभ्र्ष्ट कर रही हैं । आइये अब विस्तार से जानते हैं , अस्ति कहते हैं सत्ता को, वह मैं के स्वरूप में है । मैं के दो रूप हैं, एक माया वाला और दूसरा आत्मिक । शरीर व शरीर के नाम आदि तक जहां भी मैं इस्तेमाल किया जाता है वह माया का मैं है । और चेतन सत्ता मात्र मैं आत्मिक व परमसत्य है । यह मैं ही वास्तविक सत्ता है और सत्य भी । अपने आप के विषय में तोह किसी को संदेह नहीं होता कि मैं हूँ या नहीं । मैं तोह निःसंदेह हूँ । आप कुछ सोच रहे हैं सन्देह कर रहे हैं तोह इसका मतलब कोई है जो यह सब कर रहा है, अगर कोई होगा ही नहीं तोह कैसा सन्देह कैसा सोच विचार । यह जो सोचने वाला है यही विचार करने वाल...

हिन्दू और मुसलमानों की भूल ।

कितनो मनावो पाँव परि, कितनो मनावो रोय । हिन्दू पूजे देवता, तुर्क न काहू होय ।। क्या हिन्दू क्या मुसलमान, यह दोनों जीवित प्राणियों में परमात्मा को नहीं देखते । यह या तोह मिट्टी, पत्थर, काष्ट, अष्टधातु की मूर्तियों में परमात्मा को देखते हैं या शून्य आकाश में देखते हैं । इसलिए वह परमात्मा को प्रेम समर्पण के लिए भेड़, बैल, भैंस, बकरा, गाय, ऊँट, मुर्गा, सूयर आदि की बलि या कुर्बानी देते हैं जो कि घोर जंगलीपन है । जीवित देहधारी प्रत्यक्ष देवता है, उन्हें पत्थर के देवता या शून्य आकाश में स्थित किसी अल्लाह के नाम पर मार काट देना कितनी अज्ञान की बात है । न तोह पत्थर पिंडी आदि में कोई ईश्वर है और न ही शून्य आकाश में कोई अल्लाह है । मानव देहि तोह प्रत्यक्ष देवता है,  ईश्वर का ही अंश सभी जीवित देहों में समाया हुआ है , इन जीवित प्राणियों की पूजा करनी चाहिए इनका सत्कार करना चाहिए । परंतु आदमी के दिमाग को लकवा मार गया है वह पत्थरों में ईश्वर देखता है पत्थर पूजता है, शून्य आकाश में किसी ईश्वर को देखता है । और उसके नाम पर जीवित प्राणियों को मारता है । जिंदा प्राणियों में ईश्वर को नहीं द...

एक अज्ञान के कारण सभी योग्यताएं व्यर्थ चली जाती हैं ।

नौ मन दूध बटोरि के, टिपके किया बिनाश । दूध फाटि काँजी भया, हुवा घृत का नाश ।। नौ मन दूध इकट्ठा किया गया, परन्तु उसमें सिरके आदि खट्टे पदार्थ की कुछ बूंदे डाल दी गयी तोह सारा दूध ही नष्ट हो गया । क्योंकि दूध फटकर खट्टा पानी हो गया और घी का नाश हो गया । इस साखी में कबीर साहिब ने नौ मन दूध इकट्ठा करने की बात कही है, जिसका लाक्षणिक अर्थ है पांच तत्व, तीन गुण युक्त अष्टधाप्रकृति और नौंवा जीव अर्थात अष्टधा प्रकृति युक्त मनुष्य देह में जीव निवास करता है । परन्तु अज्ञान का टिपका पड़ने से सारी योग्यताएं व्यर्थ हो जाती हैं । अगर नौ मन दूध का अष्टधा प्रकृति और जीव से अर्थ न भी लिया जाए तोह भी काम चल जाता है । नौ मन दूध का लाक्षणिक अर्थ है पूरी योग्यता । इसमें कारण है 1 से 9 तक के संख्या अंक, इसके बाद 0 होता है, यही घूम घुमाकर अंकों की संख्या बनाते हैं । इसलिए नौ मन संख्या की अधिकता का सूचक है । जैसे कहावत है " न नौ मन तेल इकठ्ठा होगा और न राधा नाचेगी " । आठ मन या दस मन कहने का प्रचलन नहीं है किंतु नौ मन कहने का प्रचलन है । "नौ मन दूध बटोरि के" का सरल लाक्षणिक अर्थ है...

मनुष्यों में केवल गुण सर्वश्रेष्ठ हैं, गुणविहीन मनुष्य तोह पशुओं से भी बेकार है ।

मानुष तेरा गुण बड़ा, ,माँसु न आवै काज । हाड़ न होते आभरण, त्वचा न बाजन बाज ।। मनुष्य की विशेषता उसके उत्तम विचारों व सद्गुणों में है । यदि उसने अपने मानवीय गुणों व सद्गुणों का विकास नहीं किया तोह वह पशुओं से भी खराब है । पशुओं के बाल, हड्डी, चमड़ी आदि दूसरों के काम आ जाते हैं, पशु अपने जीवनकाल व मरने के बाद भी दूसरों की सेवा में लग जाते हैं । पशु अपने स्वभाविक कर्म को छोड़कर कोई दुष्कर्म नहीं करते । पशु जब किसी की फसल को चरता है तोह पेट भर जाने के बाद चरना छोड़ देता है । मनुष्य का पेट भरा रहने के बाद भी वह दूसरों के घर चोरी करता है, जेब काटता है, मिलावटखोरी, घूसखोरी, चोरबाजारी, जमाखोरी, धोखेबाजी आदि सब अपराध करता है । जिन पशु पक्षियों के जो स्वभाविक भोजन हैं, वह उसे ही ग्रहण करते हैं । जो पशु पक्षी मांसाहारी होते हैं वह प्रायः मांस ही खाते हैं और जो शाकाहारी होते हैं वह मांस नहीं खाते । मनुष्य ऐसा जंतु है जो शाकाहारी होकर भी मांस खाता है । वह बैल, गाय, भैंस, बकरा, सांप, भेड़, मेंढक, मुर्गा, सूयर आदि अब चट कर जाता है । इतना ही नहीं मनुष्य शराब, गांजा, भांग, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट आदि...

कर्मों के बंधन व इनसे जीव मुक्त कैसे हो ?

तौ लौं तारा जगमगै, जौ लौं उगै न सूर । तौ लौं जीव कर्म वश डौलै, जौ लौं ज्ञान न पूर ।। कबीर साहिब का इस साखी का उदाहरण कितना सटीक है यह समझते ही बनता है । तारे रात को जगमगाते हैं । वे अपनी पूर्ण चमक दमक के साथ प्रकाश करते हैं । परन्तु उनकी चमक दमक तभी तक है जब तक सूर्य उदय नहीं होता । सूर्य के उदय होते ही वह दिखाई भी नहीं देते । यही दशा जीवों के कर्मों की है । सब जीव शुभाशुभ कर्मों के अधीन बने संसार सागर में भटक रहे हैं । यह कर्मों की जगमहागट इसलिए है कि जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है । जब स्वरूपज्ञानी सूर्य उदय होता है तब अज्ञान अंधकार अपने आप समाप्त हो जाता है । फिर जीव का भटकना भी बंद हो जाता है । जन्म मरण से छूटकर जीव का अपने स्वरूप में स्थित होना यह जीव का भटकना बंद होना है । परन्तु इसका व्यवहारिक पक्ष है देह रहते रहते मानसिक द्वन्दों से मुक्त होकर प्रशांत हो जाना जो सबके अनुभव की बात है, यही सर्वाधिक उपयोगी है । ज्ञानोदय का अर्थ यह नहीं है कि बोहत बौद्धिक ज्ञान या शास्त्रज्ञान हो जाए । ज्ञानोदय का अर्थ है अपने  चेतन स्वरूप को जड़ से सर्वदा भिन्न समझकर विषय वासनाओ...

जीव हत्या का पाप नहीं छूट सकता, चाहे करोड़ों बार तीर्थ व दान पुण्य कर लिए जाएं ।

जीव मति मारो बापुरा, सबका एकै प्राण । हत्या कबहूँ न छूटिहैं, जो कोटिन सुनो पुराण ।। जीव घात न कीजिए, बहुरि लैत वह कान । तीर्थ गये न बाँचिहो, जो कोटि हीरा देहु दान ।। सामान्य तोह सामान्य हैं कितने ही धार्मिक कहलाने वाले लोग मनुष्य के अलावा सभी जीवों को मारकर खाने की वस्तु समझते हैं । शायद वह मनुष्य को भी मारकर खाने की वस्तु समझते पर मनुष्य को मारकर खाना इतना सरल नहीं, इसलिए मनुष्य को छोड़ कर बाकि जीवों को खाना उन्होंने अपना धर्म बना लिया । चीता और शेर मांसाहारी प्राणी हैं वह दूसरे जीवों को मारकर खाते हैं ,केवल अपने पेट को भरने के लिए । किंतु हिसंक मनुष्य ऐसा जानवर है जो मूलतः शाकाहारी है, पर अपने जीभ के स्वाद के लिए प्राणियों को मारता है केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं बल्कि लाशों के व्यापार करके पैसे इकट्ठे करता है । कितने ही चतुर लोग ईश्वर अल्लाह और देवी देवताओं के नाम पर जीव हत्या कर उनको खाते हैं और कहते हैं इससे उनको पाप नहीं लगता । उन्होंने जीव हत्या के नाम कुर्बानी और बलि रख लिए हैं । परन्तु न तोह नाम बदलने से जीव हत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी और न ही तथाकथित ईश्वर और द...

साधना में निरन्तर उत्साह से लगे रहना ही सफलता की कुंजी है ।

जैसी लागी ओर की, वैसे निबहै छोर । कौड़ी कौड़ी जोड़ि के, पूँजी लक्ष करोर ।। किसी उद्देश्य या क्षेत्र में शुरू से लेकर अंत तक एक ही भाव से लगे रहने वाले बोहत कम लोग होते हैं, इसीलिए जीवन में सफलता बोहत कम लोगों को मिल पाती है । एक संगीतज्ञ से एक आदमी ने कहा कि मैं भी आपकी तरह महान संगीतज्ञ बनना चाहता हूँ तोह संगीतज्ञ ने कहा इसमें कुछ भी कठिन नहीं है तुम निरंतर लग्न से तीस पैंतीस साल संगीत में लगे रहिये आप निश्चित ही एक महान संगीतज्ञ बन जाओगे । जो अपने निश्चित लक्ष्य को पाने के लिए लगातार दीर्घ काल तक एक समान श्रम करता है वह एक दिन सफल हो जाता है । सन्तों की संगत पाकर लोग शुरू शुरू में भक्तिभाव में बोहत ओतप्रोत हो जाते हैं परन्तु थोड़े दिनों के बाद ही वह यह सब प्रायः भूल जाते हैं । कितने ही लोग साधना में बड़े उत्साह से लगते हैं पर उनका यह उत्साह ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाता । वह पुनः मन की मलिनता में घिर जाते हैं और कहने लगते हैं कि वैराग्य, भक्ति, आध्यात्म यह अब बकवास बातें हैं । जिस किसान को केवल फसल पाने में ही आनंद आता हो, किसानी में नहीं, जिस व्यापारी को केवल मुनाफ़े में आनंद आ...

मन के अहंकार को त्यागे बिना, सांसारिक त्याग सार्थक नहीं ।

माया तजे तोह क्या भया, जो मान तजा नहीं जाए ।  जेहि मान मुनिवर ठगे, सो मान सबन को खाए ।। इस साखी में कबीर साहिब ने साधु लोगों के अहंकार की बात की है । घर, परिवार, धन, दौलत को छोड़कर साधु बन गये और साधु बनकर अपने त्याग का अपने साधु होने का अहंकार पाल लेने से कोई फायदा नहीं होने वाला । साधु का वेष ही मृतक का चिन्ह है जिसमें पूरी विनम्रता होनी चाहिए । जो संसार से मर गया उसे क्या अहंकार हो सकता है । संसार में जीव देह को छोड़कर चला जाता है तब उसे मरना कहा जाता है । और साधु दशा में मन के सारे अहंकार जब समाप्त हो जाते हैं तब उसे साधुत्व कहा जाता है ।  परन्तु आश्चर्य है कि कितने लोग साधु का वेष धारण करने के बाद अहंकार की महामूर्ति हो जाते हैं । धन का नशा, विद्या का नशा, पद का नशा तो होता ही है पर त्याग का नशा भी आ जाता है । सारे नशे जीव को पतित करने वाले हैं । आप पुराण और महाकाव्यों को पढ़िये तोह पता चलेगा कि कैसे ऋषि मुनि छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे को श्राप देते, मारा मारी करते और एक दूसरे के आश्रम जला देते थे । वशिष्ठ विश्वामित्र का और विश्वामित्र वशिष्ठ का विध्वंस करते है...

मृत्यु परम सत्य है, पर मनुष्य इसे याद नहीं रखना चाहता ।

मूवा है मरि जाहुगे, मुये कि बाजी ढोल । सपन स्नेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल ।। मृत्यु जीवन का परम सत्य है, इसको झुठलाया नहीं जा सकता । किन्तु खेद है कि मनुष्य इसको झुठलाने में जीवन भर लगा रहता है । लोग मृत्यु को याद नहीं रखना चाहते । यदि कोई उनको मृत्यु की याद कराना चाहे तोह लोग नाख़ुश हो जाते हैं । किसी पुत्र जन्म या विवाह आदि के अवसर पर अगर कोई व्यक्ति मृत्यु का नाम ले लेवे तोह लोग कहते हैं कि चुप भी रहो भले आदमी, ऐसे मंगल अवसर पर किस अमंगल का नाम ले रहे हो । लोगों के लिए जन्म और विवाह ही मंगल मौके हैं और मृत्यु अमंगल है । याद रखो किसी जन्म या विवाह के मौके पर तोह हम उसकी गहमागहमी में माया मोह में भूल जाते हैं उलझे रहते हैं । जबकि किसी संगी साथी की मृत्यु के मौके पर हमारा मन संसार से कट कर शांत रहता है । लोग दुकान को बंद नहीं करते दुकान को बढ़ाते हैं । जब दुकान को बंद करने का समय हो तोह नौकर को बोल देते हैं कि दुकान बढ़ा दो , बंद करना अमंगल बात है इसलिए बोलते हैं दुकान को बढ़ा दो यह मंगल बात है । कितना मूर्ख हो चुका है व्यक्ति हर पल खुद को ही ठगे जा रहा है सत्य से भाग रहा है । शत...

धोखेबाज व अधूरे गुरूओं के मायाजाल से सावधान रहना चाहिए ।

साहु  चोर चीन्है नहीं, अंधा मति का हीन । पारख बिना विनाश है, कर विचार होहु भीन ।। जैसे श्रेष्ठी शब्द का अपभ्रंश होक सेठ शब्द बना है, वैसे ही साधु शब्द से साहु शब्द बना हुआ है । साहु का अर्थ होता है जो सत्य का व्यवहार करता है । सज्जन और ईमानदार को साहु कहते हैं । जो दूर दराज से माल लाकर लोगों में बेचता था और लोगों से माल लेकर दूर देश में बेचता था । उसके सत्य व ईमानदारी वाले व्यवहार के कारण उनको साहु व महाजन आदि नामों से पुकारा जाता था । पर इस बात का खेद है कि चोरी, बेईमानी के कारण आज उसी वर्ग को सबसे अधिक धोखेबाज, चोर व बेईमान समझा जाता है । यह सच है कि आज भी कितने ही व्यापारी व्यवहार में ईमानदार हैं पर चोर व बेईमान व्यापारियों के साथ उनको भी संदेह की दृष्टि से देखा जाता है । गुरू दर्जा तोह सर्वोच्च है । गुरू वह है जिसका ज्ञान सत्य हो, जिसका व्यवहार सत्य हो । पर खेद है कि गुरू के नाम से आजकल धंधेबाज और धोखेबाज अधिक हो गये हैं । वह अपने जादू से शिष्यों के सारे पाप काट देते हैं और ऋद्धि सिद्धि का दावा करके समाज को बेवकूफ बनाते हैं । वह अपने आप को ईश्वर के अवतार व प्रसिद्ध ...

ज्ञान रूपी हीरे को केवल योग्य मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है ।

हीरा तहां न खोलिए, जहाँ कुँजरों की हाट । सहजे गाँठि बांध के, लगिये अपनी बाट ।। कबीर साहिब ने इस साखी में ज्ञान को हीरे के रूप में पेश किया है और कहा है कि हीरे को केवल पारखी की पास ही खोलना चाहिए । कुँजरों की बाट यानी सब्ज़ी बेचने वालों का बाज़ार, अब सब्ज़ी मंडी में अगर कोई जौहरी अपनी हीरे की दुकान लगाकर बैठ जाए तोह उसके हीरे वहां नहीं बिक सकते । क्योंकि वहां आने वाले लोगों के पास इतना धन नहीं होगा और न ही हीरे की परख होगी कि वह हीरे को खरीद सकें । इसी तरह जो लोग मंत्र तंत्र साधना, बाहरी पूजा, कर्मकांड आदि में उलझे हुए हैं उनके सामने जड़ चेतन, आत्म ज्ञान आदि की बातें नहीं करनी चाहिए । उनके आगे अपनी समझ व शक्ति बर्बाद नहीं करनी चाहिए । उनको इन बातों से कोई लाभ नहीं होने वाला क्योंकि उनकी विवेक शक्ति ही शुन्य हो चुकी होती है वह मिथ्या भक्ति में बोहत उलझ चुके होते हैं । अब प्रश्न उठता है कि जब जन साधरण के सामने ज्ञान की बात नहीं करेंगे तोह उनकी जड़ बुद्धि समाप्त कैसे होगी । बोहत से जड़ बुद्धि वाले लोग ज्ञान की बात सुनकर अपने मिथ्या भक्ति के सिद्धांतों को त्याग देते हैं । इसका जवाब ...

मूर्ख को ज्ञान उपदेश देने का कोई फायदा नहीं होने वाला ।

मूर्ख को समझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । कोयला होय न ऊजरा, सौ मन साबुन लाय ।। कबीर साहिब ने इस साखी में एक सरल बात पर प्रकाश किया है । वह कहते हैं कि कभी मूर्ख मनुष्य को ज्ञान उपदेश दिया जाए तोह वह उससे लाभ नहीं लेने वाला बल्कि उल्टा इसका दुरुपयोग ही करेगा । वह अच्छी सीख का या तोह सामने ही मज़ाक उड़ा देगा या पीठ पीछे मज़ाक उड़ाएगा, हंसी करेगा । सीख के उल्टे आचरण वह जग में अपनी वरियता जाहिर करेगा । ऐसे लोगों को उपदेश देने से उपदेश देने वाले के मन में असंतोष आ सकता है, उसकी शान्ति भंग हो सकती है । मूर्ख को तोह को कुछ फर्क नहीं पड़ेगा पर उपदेश देने वाले की शांति भंग हो गयी, इसी को ज्ञान गाँठि का जाना कहा जाता है । आप सभी जानते ही हैं कि कोयला अंदर और बाहर से काला होता है, उसे सौ मन साबुन लगा कर पानी से धोया जाए तब भी कोयला ऊजला होने वाला नहीं है । मूर्खों की यही दशा है । वह भीतर से बाहर तक काले कोयले हैं । वह शुद्ध नहीं हो सकते, चाहे उनको लाख बार उपदेश दे दिया जाए । यह कहा जा सकता है कि कोयला तोह जड़ है, मनुष्य चेतन है, वह अपनी दृष्टि बदल दे तोह अवश्य सुधर जाएगा । यह तर्क ठीक है पर फिर...