जाको सतगुरू न मिला, ब्याकुल दहूँ दिश धाय ।
आंख न सूझे बावरा, घर जरै घूर बुताय ।।
सतगुरू कबीर साहिब इस साखी में बता रहे हैं कि जिस जीव को सतगुरु की शरण नहीं मिलती वह ब्याकुल होकर दसों दिशाओं में घूमता है फिर भी मार्ग नहीं पाता ।
गुरू और सतगुरू में अंतर होता है, माता पिता, दाई, विद्या पढ़ाने वाला, एक एक विद्या देकर या कला सिखाने वाला या किसी मत की दीक्षा देकर सन्मार्ग पर लगाने वाले यह सब गुरू हैं । गुरू बोहत होते हैं एक गुरू के बाद दूसरा गुरू स्वीकारा जाता है । परन्तु सतगुरू केवल एक ही होता है वह दो नहीं हो सकते । जिसको सतगुरू की शरण मिल जाए उसको फिर कोई दूसरा सतगुरू नहीं ढूंढना पड़ता । गुरूओं की शरण में जाकर जब तक यतार्थ बोध न मिला तब तक समझो सतगुरू नहीं मिला । सतगुरू मिलने पर सारी भ्रांतियां मिट जाती हैं और यथार्थ बोध हो जाता है । कबीर साहिब कहते हैं जिसको सतगुरू नहीं मिला वह अशांत होकर दशों दिशाओं में भटकता है । पूर्व, पच्छिम, उत्तर, दक्षिण, अग्नेय, ईशान, वायव्य, नैऋरती, ऊपर और नीचे यह दस दिशाएँ मानी गयी हैं । विवेकहीन प्राणी परमात्मा या मोक्ष को पाने के लिए दशों दिशाओं में भटकता है । तीर्थों के नाम पर आठों दिशाओं में तोह दौड़ता ही है । ऊपर स्वर्ग या परमात्मा के लोक की कल्पना करता है और नीचे क्षीरसागर व विष्णु कर लोक की कल्पना करता है । दशों दिशाओं का मूल अर्थ है सभी तरफ़ । आदमी बिना बोध के सभी तरफ दौड़ता फिरता है । दशों दिशाओं से अर्थ चार वेद व छ शास्त्रों से भी किया जा सकता है । अर्थात मनुष्य चारों वेदों और छः शास्त्रों की वाणियों में जिसको साहिब ने बावन कहा है में भटकता है । कहने अर्थ यही है कि जब तक मनुष्य को सतगुरू के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक वह चारों ओर भटकता है । चाहे अनपढ़ हो चाहे विद्वान सब भटकते हैं, आज के युग में भी अंध विश्वास की कमी नहीं है । धूर्त विद्वान लोग अनपढ़ व पढ़े लिखे दोनों को मूर्ख बना अपने माया जाल में फंसाकर उनका शोषण करते हैं । सतगुरू शब्द वज़नदार है इसलिए आज कल हरेक धूर्त ने खुद को सतगुरू घोषित कर रखा है इनसे बहुत सावधान रहने की जरूरत है ।
जिसको जड़ चेतन का ज्ञान नहीं, अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं वह अंधा है विवेकहीन है । वह घर में आग लगने पर उसपे पानी नहीं डालता पर घूर पर पानी डालता है । काम क्रोध लोभ अहंकार आदि की आग उसके दिल में लगी रहती है और वह पत्थर, पीतल, पेड़, पहाड़ आदि पूजता फिरता है । वह काशी, प्रयाग, द्वारका आदि जैसे अनेकों तीर्थों की खाक छानता है जहां उसको पुजारियों कर धोखे और भीड़ के धक्के के सिवा कुछ नहीं मिलता है ।
कारण है कि उसे सतगुरू नहीं मिला है । सतगुरू ही साधक की आंखें खोलता है और बताता है हे मानव तेरे ह्र्दय में ही आत्म देव निवास कर रहा है जो तेरा वास्तविक स्वरूप है उसको जान जाओगे तो परमात्मा को जानना मुश्किल नहीं है क्योंकि परमात्मा भी तेरे जैसा है तुम परमात्मा के जैसे ही हो । जल की बूंद और जल के भंडार दोनों मूल में एक जैसे ही होते हैं । सतगुरू ही बताता है कि तुम इन बाहर की भटकना को छोड़, तीर्थ, व्रत, देवी देवता इन सब भ्रांतियों से बाहर निकल कर अपने स्वरूप का बोध कर । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि सभी प्रकार के प्रपंच छोड़ कर सच्चे सतगुरू की खोज़ करे ।
सतगुरू वैराग साहिब की जय
साहिब बंदगी
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