महमता मन मारिले, घट ही माहिं घेर ।
जबहिं चाले पीठ दे, आंकुस दे दे फेर ।।
यह मन नीचा मूल है, नीचा कर्म सुहाए ।
अमृत छोड़ मान करि, विष ही प्रीत करि खाय ।।
मन कोई स्वतः सिद्ध वस्तु नहीं है उसके आधीन रहने वाली दशो इन्द्रियों के साथ वह एक काल्पित और जड़ पदार्थ है, चेतन्य के सत्ता से ही प्रकाशित है । यद्यपि वासना मन को होती है तोह भी उसके साथ - साथ अल्पित आत्मा भी घसीटी जाती है ।
जैसे जल में सूर्य का प्रतिबिंब पड़ने से वह चमकने लगता है, जल तोह जड़ रूप ही है, उसमें प्रकाशित होने की स्वतंत्र शक्ति नहीं है, ऐसे ही मन को जानना चाहिए । क्योंकि मन भी जड़ है वह अपने आप कुछ नहीं कर सकता लेकिन चेतन के सम्बंध से नाना प्रकार का संकल्प विकल्प करता रहता है ।
आत्मा महारथी है, मन सार्थी है, इंद्रियां घोड़े हैं , मन जिधर इन्द्रियों रूपी घोड़े को हाँकता है उधर ही घोड़े दौड़ते हैं और शरीर रूपी रथ भी उधर ही खिसकता चला जाता है । मन आत्मा के सत्ता आधीन होने पर भी स्वेच्छा अनुसार गति क्रीड़ा करता रहता है । मन ऐसा प्रबल है कि नाना प्रकार के उपाय करने पर भी वश में नहीं होता । यह भी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और अस्थूल से भी अस्थूलतम है । इसकी गति की वेग अपरम्पार है । यह बड़ा चंचल और बलवान है । दृढ़ और सर्व इन्द्रियों का मंथन करने वाला है । मन को स्थिर करना बड़ा कठिन काम है । मन ही संसार रूपी बंधन का कारण है और यही अविद्या है । अगर मन का नाश हो तोह सब प्रपंचों का नाश हो जाये । इसलिए मन को अभ्यास तथा वैराग्य से वश में करना चाहिए । मन ही बंधन और मन ही मोक्ष का कारण है । जैसे शत्रु को एकांत में पाकर मारते हैं उसी तरह मन रूपी शत्रु को भी मारना चाहिए । अगर विवेक वैराग्य के बढ़ने से मन विशुद्ध को प्राप्त हो जाए तो मुक्ति सहज में हो जाये । लेकिन रज तम के बढ़ने से मीन होकर संसार के रगड़े झगड़े खींचतान में पड़ जाता है । अगर मन शुद्धि के मार्ग में पड़ जाता है तो धीरे धीरे उसका झुकान सत्य वस्तु की ओर हो जाता है और उससे प्रीत हो जाती है । अनेक प्रकार के युक्ति प्रयुक्ति से ज्ञानी लोग मन पर अंकुश जमाते हैं । जब ध्यान में बैठते हैं तोह मन को एकाग्र कर लेते हैं और यह सोचते हैं कि न मैं पुरूष हूँ, न स्त्री, न ब्राह्मण, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शुद्र, न पंच भौतिक देह हूँ , मैं तोह उस पारब्रह्म की सत्ता हूँ और उसी में विलीन हो जाऊँगा ।
साहिब बंदगी
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