अस्ति कहौं तोह कोइ न पतीजे, बिन अस्ति का सिद्धा ।
कहहिं कबीर सुनो हो सन्तों, हीरी हीरा बेधा ।।
मनुष्य का आत्म अस्तित्व ही सर्वदा सत्य व विद्यमान (अस्ति) वस्तु है । जब कोई उसकी ओर सुझाव देता है तोह कोई विश्वास नहीं करता । लोग अत्यंत मिथ्या व काल्पनिक वस्तु का पक्ष देकर सिद्ध बन रहे हैं । कबीर साहिब कहते हैं सुनो सन्तों , जैसे हीरे के कण ही हीरे को काट देते हैं उसी तरह जीव के मन से पैदा हुई कल्पना ही उसका पथभ्र्ष्ट कर रही हैं ।
आइये अब विस्तार से जानते हैं , अस्ति कहते हैं सत्ता को, वह मैं के स्वरूप में है । मैं के दो रूप हैं, एक माया वाला और दूसरा आत्मिक । शरीर व शरीर के नाम आदि तक जहां भी मैं इस्तेमाल किया जाता है वह माया का मैं है । और चेतन सत्ता मात्र मैं आत्मिक व परमसत्य है । यह मैं ही वास्तविक सत्ता है और सत्य भी । अपने आप के विषय में तोह किसी को संदेह नहीं होता कि मैं हूँ या नहीं । मैं तोह निःसंदेह हूँ । आप कुछ सोच रहे हैं सन्देह कर रहे हैं तोह इसका मतलब कोई है जो यह सब कर रहा है, अगर कोई होगा ही नहीं तोह कैसा सन्देह कैसा सोच विचार । यह जो सोचने वाला है यही विचार करने वाला है यही आत्मिक मैं है और यही सत्य है ।
जीव उस परम सत्ता का ही अंश है दोनों में कोई अंतर नहीं । अगर परम् सत्ता परमात्मा परम सत्य है तोह उसी का अंश आत्मा भी सत्य है । जीव से अलग बाहर दुनिया में कोई परम सत्ता नहीं है । परन्तु लोग यह बात समझ नहीं पाते उनके गले में यह बात उतरती नहीं । कबीर साहिब ने कहा भी है " आत्म चीन्ह परमात्म चीन्हे सन्त कहावे सोय " । यदि कोई सत्य मनुष्य की आत्मा से अलग है तोह वह सत्य नहीं हो सकता । मेरा अपना निज स्वरूप ही मेरे काम का हो सकता है, बाहर के हज़ारों देवी देवता, ईश्वर मेरे काम के नहीं हो सकते । अपनी आत्मा से अलग जो कुछ भी दुनिया में मिलेगा जिसे इंद्रियां अनुभव करेंगी वह केवल पांचों विषयों का ही माया जाल होगा, वह सत्य नहीं है । इसलिए अगर मैं परमात्मा को अपनी आत्मा से बाहर पाने का सपना देखता हूँ तोह मैं धोखे में हूँ । बाहर से जो कुछ भी परमात्मा के नाम पर प्राप्त करूँगा वह केवल विषय विकार ही होगा । बाहर से मिलने वाला सब काल्पनिक है वह स्थाई नहीं, पर मेरा अपना आत्म स्वरूप तोह स्थाई है जो कि मैं खुद हूँ । मुझे केवल अपने स्वरूप की दशा में कदम बढ़ाना है उसी में स्थित होना है ।
लोग बिना अस्ति के सिद्ध बन रहे हैं । अपनी आत्मा से अलग परमात्मा को पाकर मुक्त होना चाह रहे हैं । अपनी आत्मा से अलग जो कुछ भी मिलेगा वह माया होगी, उसमें सिद्धि न मिलकर भटकाव मिलेगा । यह तोह वही दशा हो गयी कि हीरे से निकली हीरकनी ही हीरे को काट देती है । इसी प्रकार जीव का ही मानसिक भ्रम जीव को भटकाता है । जीव अपने समर्थ , संम्पन्न, विद्यमान स्वरूप को छोड़कर बाहर के काल्पनिक व अविद्यमान वस्तुओं में उलझ रहा है ।यह तो वैसा हो गया, जैसे कोई अपने पैर पर आप कुल्हाड़ी मार रहा है । इसलिए कबीर साहिब कहते हैं संत स्वरूपी मनुष्यों अपने मन की कल्पना को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ ।
साहिब बंदगी
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