Skip to main content

मन का काम ही है विषयों में उलझना, पर मन को काबू करना हमारे हाथ में है ।



मन स्वार्थी आप रस, विषय लहर फहराय ।
मन के चलाये तन चलै, जाते सरबस जाय ।।

मन स्वार्थी है, खुदगर्ज है । यह सदैव अपने रस में डूबा रहता है । उसे सदा विषयों का स्वाद प्रिय है क्योंकि मन अनादिकाल से विषयों में ही आसक्त (डूबा हुआ) है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पांच विषय हैं । सामान्य मनुष्य के मन में हर समय कोई न कोई विषय की लहर विद्यमान रहती ही है और वह उसी में डूबा रहता है । साधारण मनुष्य भी हर समय अपने मन को रोकता है, जिस विषय से वह अपने मन को रोक नहीं पाता, तब वह कम से कम अपनी इंद्रियों को तोह रोक ही लेता है । मनुष्य का मन जिस तरह हर क्षण सोचता है, अगर इंद्रियां भी उसी अनुसार चलने लग जाएं तोह मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । जब किसी एक विषय में मनुष्य का मन निरंतर लगा रहता है तोह उस विषय के प्रति उसे मोह जकड़ लेता है और मनुष्य उस विषय के आगे असहाय होकर उस में बह जाता है ।

कोई साधारण गृहस्थी व्यक्ति या साधक व्यक्ति, जब वह  स्त्रियों के कामोद्दीपक अंगों के सहित उनका स्मरण करता रहेगा, वह एक न एक दिन अपने पद से गिर जाएगा । मन विचलित होने पर शरीर विचलित हो जाता है, जब मन और तन दोनों विचलित हो गये तोह समझों सरबस चला गया । अर्थात उसका सब प्रकार से पत्न हो गया । इसी तरह से कोई साधारण स्त्री या साधिका जब किसी पुरुष के अंगों सहित उसी देह का स्मरण करती रहेगी तोह धीरे धीरे उसकी तरफ फिसलकर अपना आपा खो देगी । अच्छे से अच्छे साधक कुसंग के कारण ही गिरते हैं । स्त्री के लिए पुरुष व पुरुष के लिए स्त्री विरोधी आलंबन है । विरोधी आलंबन के निरन्तर घूर घूरकर दर्शन व डूब डूबकर स्मरण करते रहने से पतित होने के सिवा कोई चारा ही नहीं है ।

जिन जिन दृश्यों एवं शब्दों से मन विचलित होता हो वह सब कुसंग हैं । मन को शुद्ध बनाये रखने के लिए ऐसे दृश्यों से परहेज बनाये रखने को अनादिकाल से कहा जाता रहा है । जो कीट पतंगे के समान मूर्ख बनकर जलती दीप ज्वाला एवं विरोधी आलंबन में जाएगा उसका विनाश तोह रखा रखाया है । एक नवयुवक एक युवती को दूर से ही देख देखकर इतना मोहित हो गया कि एकदिन युवती के घर जाकर अपने मन की बात कहने लगा । युवती को उस युवक पर गुस्सा आया और उसने पत्थर उसके सिर पर दे मारा , युवक गिर गया, लोग इकट्ठे हो गये । युवक पर थू थू करने लगे, उसे पुलिस के पास लेकर गये । बाद में लोगों ने उसका आधे बाल काटकर, उसके मुंह पर कालिख पोत कर उसको बाजार में घुमाने लगें । यह नैन रसिक लोग अक्कल से इतने अंधे हो जाते हैं कि अपनी नैतिकता, शान्ति, प्रतिष्ठा व दूसरों की भी शांति, प्रतिष्ठा को भूलकर अपनी नाक को मल में डूबा देते हैं ।

इसलिए कबीर साहिब कहते हैं, हे मानव, हे साधक तू सावधान हो जा । तू चाम, बाल, वस्त्र की बनावट के मिथ्या मोह में अंधा मत बन । यह नर- नारियों के शरीर हड्डी, मांस, रक्त, मल, मूत्र के पात्र हैं । इनमें कुछ सार नहीं है । भोगों से मन कभी तृप्त नहीं होता, पर त्याग से तृप्त हो जाता है । विषयों की मलिनता नरक है । इनसे मुक्त होना ही जीव की उच्च अवस्था है ।
साहिब बंदगी

Comments

  1. कबीर दास जी ने बहुत सुंदर लिखा है

    ReplyDelete
  2. ऐसे ज्ञानवान महान संत कभी कभी ही धरती पर अवतरित होते है

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

सार शब्द क्या है ? जानें सार शब्द का शाब्दिक ज्ञान

शब्द स्वरूपी ज्ञान मय, दया सिंधु मति धीर । मदन सकल घट पूर है, करता सत्य कबीर ।। सत्य शब्द महा चैतन्य को शब्द स्वरूप बतलाया है । सो हमें उसका ज्ञान कैसे निश्चय होगा । क्योंकि शास्त्रों ने शब्द को आकाश का गुण ठहराया है । कोई कोई सार शब्द को निर्णय भी कहते हैं । वह तीन प्रकार के हैं - वर्णात्मक- जैसे अ, आ, अ: से लेकर क ख ग, घ ङ से क्ष त्र ज्ञ बावन अक्षर हैं इनको क्षर आकार कहते हैं । ध्वनात्मक- तत्वों के संसर्ग से होने वाले अनहद दशनाद इत्यादि तथा अक्षर "आकार" होता है , वह जीव आत्मा है वह भी इस शरीर में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार दशों इन्द्रियों और पंच वायु में व्याप्त है । इसके बिना मन बुद्धि आदि जड़ है । स्वयंसिद्ध- स्वतः शब्द अविनाशी विदेह स्वरूप निःअक्षर सार शब्द जो न किसी से बनता है और न ही बिगड़ता है, न ही उसका संयोग होता है और न ही वियोग, वह अखण्ड हर वक्त अपने स्वशक्ति से हमेशा गर्जना कर रहा है और कर्ता है , उसका कोई आदि अंत नहीं है । शब्द अखण्ड और सब खण्डा । सार शब्द गर्जे ब्रह्मण्डा ।। वह सब आत्माओं में समाया हुआ है । उसके बिना कोई आत्मा प्रकाशित नहीं हो सकती ।...

मूर्ख को ज्ञान उपदेश देने का कोई फायदा नहीं होने वाला ।

मूर्ख को समझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । कोयला होय न ऊजरा, सौ मन साबुन लाय ।। कबीर साहिब ने इस साखी में एक सरल बात पर प्रकाश किया है । वह कहते हैं कि कभी मूर्ख मनुष्य को ज्ञान उपदेश दिया जाए तोह वह उससे लाभ नहीं लेने वाला बल्कि उल्टा इसका दुरुपयोग ही करेगा । वह अच्छी सीख का या तोह सामने ही मज़ाक उड़ा देगा या पीठ पीछे मज़ाक उड़ाएगा, हंसी करेगा । सीख के उल्टे आचरण वह जग में अपनी वरियता जाहिर करेगा । ऐसे लोगों को उपदेश देने से उपदेश देने वाले के मन में असंतोष आ सकता है, उसकी शान्ति भंग हो सकती है । मूर्ख को तोह को कुछ फर्क नहीं पड़ेगा पर उपदेश देने वाले की शांति भंग हो गयी, इसी को ज्ञान गाँठि का जाना कहा जाता है । आप सभी जानते ही हैं कि कोयला अंदर और बाहर से काला होता है, उसे सौ मन साबुन लगा कर पानी से धोया जाए तब भी कोयला ऊजला होने वाला नहीं है । मूर्खों की यही दशा है । वह भीतर से बाहर तक काले कोयले हैं । वह शुद्ध नहीं हो सकते, चाहे उनको लाख बार उपदेश दे दिया जाए । यह कहा जा सकता है कि कोयला तोह जड़ है, मनुष्य चेतन है, वह अपनी दृष्टि बदल दे तोह अवश्य सुधर जाएगा । यह तर्क ठीक है पर फिर...

जीव हत्या का पाप नहीं छूट सकता, चाहे करोड़ों बार तीर्थ व दान पुण्य कर लिए जाएं ।

जीव मति मारो बापुरा, सबका एकै प्राण । हत्या कबहूँ न छूटिहैं, जो कोटिन सुनो पुराण ।। जीव घात न कीजिए, बहुरि लैत वह कान । तीर्थ गये न बाँचिहो, जो कोटि हीरा देहु दान ।। सामान्य तोह सामान्य हैं कितने ही धार्मिक कहलाने वाले लोग मनुष्य के अलावा सभी जीवों को मारकर खाने की वस्तु समझते हैं । शायद वह मनुष्य को भी मारकर खाने की वस्तु समझते पर मनुष्य को मारकर खाना इतना सरल नहीं, इसलिए मनुष्य को छोड़ कर बाकि जीवों को खाना उन्होंने अपना धर्म बना लिया । चीता और शेर मांसाहारी प्राणी हैं वह दूसरे जीवों को मारकर खाते हैं ,केवल अपने पेट को भरने के लिए । किंतु हिसंक मनुष्य ऐसा जानवर है जो मूलतः शाकाहारी है, पर अपने जीभ के स्वाद के लिए प्राणियों को मारता है केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं बल्कि लाशों के व्यापार करके पैसे इकट्ठे करता है । कितने ही चतुर लोग ईश्वर अल्लाह और देवी देवताओं के नाम पर जीव हत्या कर उनको खाते हैं और कहते हैं इससे उनको पाप नहीं लगता । उन्होंने जीव हत्या के नाम कुर्बानी और बलि रख लिए हैं । परन्तु न तोह नाम बदलने से जीव हत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी और न ही तथाकथित ईश्वर और द...