काजल केरी कोठरी, बुड़ता है संसार ।
बलिहारी तेहि पुरूष की, जो पैठि के निकरनहार ।।
जब जीव शरीर धारण करता है, जन्म लेता है तोह धीरे धीरे संसार के विषय विकार उसको लगते जाते हैं । दिन जितने बीतते जाते हैं वह माया में निरंतर डूबता जाता है । बालक, किशोर, अधेड़, वृद्ध जो भी उसे मिलता है वो प्रायः विषय विकारों का ही पाठ उसे पढ़ाते हैं । उसे नये नये दुर्गुण और बुराइयां सीखाते हैं । इस संसार में प्रवेश करना मानो अंधकार में प्रवेश करना है । आप जिधर देखोगे मन को खराब करने वाली बातें देखोगे सुनोगे । ज्यादातर लोग रजोगुण और तमोगुण में लिपटे हुए नज़र आएंगे । इनकी संगत का भी यही पप्रभाव होता है, इनकी संगत में पड़कर कितने ही सज़्ज़न लोग बिगड़ जाते हैं । कहने का भाव है कि जीव देह करके काजल की कोठरी में गिर पड़ता है अर्थात माया के मुंह में गिर जाता है ।
बलिहारी तेहि पुरुष की, जो पैठि के निकरनहार । कबीर साहिब कहते हैं कि मैं जीव के बलिहारी जाता हूँ जो इस काल कोठरी में आकर खुद को इससे निकाल लेता है । मैं उस पुरूष पर कुर्बान हो जाता हूँ । यहाँ पुरूष से मतलब स्त्री पुरूष से नहीं है बल्कि चेतन जीव आत्मा को पुरुष कहके बुलाया गया है ।
भूल हो जाना, गलती हो जाना, भटक जाना यह सब सहज बात है । इसको गलत दृष्टि से न देखो, क्या दीवार, पेड़ पौधे गलती करते हैं ? नहीं करते वो जानदार नहीं हैं वो मनुष्य के जैसे नहीं हैं, मनुष्य जानदार प्राणी है । मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ है । मनुष्य समझ सकता है । भटक सकता है, गलती कर सकता है । पर मनुष्य ही भूल को सुधार सकता है । मनुष्य की तुलना में केवल मनुष्य ही होता है । इस सृष्टि में चारों और विषय विकारों का कीचड़ है, उसमें मनुष्य फिसल सकता है । यह जड़ सृष्टि मनुष्य को कीचड़ में धकेलने के लिए हर समय तयार है । मनुष्य गिर सकता है, पर इसका मतलब यह नहीं कि वो इस काजल की कोठरी से बाहर नहीं निकल सकता । मनुष्य विवेकी प्राणी है विवेक से काम लेकर वो विषयों विकारों के कीचड़ से खुद को निकाल सकता है । मनुष्य जान सकता है कि यह माया कीचड़ है उसका स्वरूप जड़ नहीं अपितु चेतन आत्म है । कबीर साहिब कहते हैं जो दृढ़ इच्छा से संसार की काजल की कोठरी से खुद को निकाल ले वो जीव मुझे बोहत प्रिय है ।
साहिब बंदगी
Comments
Post a Comment