सभी के मन में यह विचार उठता है कि परमात्मा साकार है या निराकार । तोह इस द्वंद को मिटाने के लिए कबीर साहिब वाणियों में क्या कहा है आईये जानते हैं ।
मन की शोभा ज्ञान है, तन की शोभा भेष ।
साहेब एक मन समुझि ले, चंहु जुग ऐसो रेष ।।
साहिब कह रहे हैं कि ज्ञान के द्वारा मन को सुसंस्कृत एवं निर्मल रूप से शुद्ध या पवित्र किया जाता है । तभी यह मनुष्य के लिए हितकारी एवं कल्याणकारी हो पाता है । भेष के द्वारा तोह शरीर की बाह्य शोभा बढ़ाई जाती है । मात्र भेष अच्छा बना लेने से ऊपर से भले ही मनुष्य सुंदर एवं आकर्षित पूजनीय समझ पड़े, परन्तु सद्ज्ञान न होने के कारण वह पूज्य नहीं हो सकता । वह परमात्मा किस स्वरूप का है ? इस भेद को अच्छी तरह एकाग्र होकर समझ लीजिए । वह परमात्मा जैसा कि युग युगन से सर्गुण निर्गुण का द्वंद फैला हुआ है, वह परमात्मा सर्गुण और निर्गुण दोनों से ही परे है ।
आगे कबीर साहिब कहते हैं -
एक पुरूष वह आदि है, निर्गुण सर्गुण बनाय ।
एक एक आशा नहीं, एको गयो भुलाय ।।
साहिब कह रहे हैं एक चेतन्य आत्मा ही आदि पुरूष है उसी के द्वारा इस जड़ जगत की रचना हुई है । उस चेतन्य आत्मा के द्वारा निर्गुण मन तथा सर्गुण तन बना है । इस तन और मन की आशा में वह चेतन्य आत्मा अपने स्वयं के चेतन्य स्वरूप को पूरी तरह भूल चुकी है ।
आगे कबीर साहिब कह रहे हैं -
मन निर्गुण तन सर्गुण है, दुविधा में हैरान ।
तन मन की आशा तजो, देखो चुप ठेकान ।।
द्विविधा की ऐसी दशा में साहिब कहते हैं कि हे जिज्ञासु जीवो तुम्हारा स्वयं का मन ही निर्गुण है और तुम्हारा स्वयं का तन ही सर्गुण है । तुम स्वयं के चेतन्य स्वरूप को भूल गये हो । इसलिए तुम सर्गुण और निर्गुण की द्विविधा में हैरान हो रहे हो । मेरे ऊपर विश्वास करो तथा मन व तन दोनों की कल: कल्पना को छोड़कर एकाग्र होकर सूरति को सार शब्द परमात्मा में केंद्रित करो । उसके बाद समस्त भरम संशय द्विविधा अपने आप समाप्त हो जाएगी ।
इसी के ऊपर कबीर साहिब की साखी भी है -
काल चक्कर चक्की चली, बहुत दिवस और रात ।
निर्गुण सर्गुण दो पाटने, तामे जीव पिसात ।।
साहिब कहते हैं कि अनेकों वर्षों से निर्गुण व सर्गुण की तन और मन की क्रिया कलापो की चक्की चल रही है, यह चक्की दिन रात चल रही है । इस चक्की को चलाने वाला जीव खुद है और अज्ञानता वश अपना स्वरूप भूल जाने के कारण वह इस निर्गुण सर्गुण की चक्की में पिसता ही चला जा रहा है ।
साहिब बंदगी
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