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मरना कैसा होना चाहिए, क्या है मरने की सही कला ?



मरते मरते जग मुवा, मुये न जाने कोय ।
ऐसा होय के न मुवा, जो बहुरि न मरना होय ।।

कबीर साहिब की इस साखी का विषय है कि मरना कैसा हो ? और हमारे कबीर विज्ञान आश्रम का मूल ज्ञान भी यही है कि मरना कैसा हो ? कबीर साहिब कहते हैं कि मरते तोह सब हैं लेकिन मरने- मरने में अंतर है । लोग मरने की कला नहीं जानते तरीका नहीं जानते । प्रश्न हो सकता है कि मरने का तरीका क्या है ?  क्या फांसी लगाकर ? आग में या जल में कूदकर या ट्रेन से कटकर या ज़हर खाकर ? उत्तर में समझना चाहिए कि यह सब मरने के तरीके नहीं हैं । यह अब आत्महत्या के तरीके हैं । मरने का तरीका है जीने का अच्छा तरीका ।

जीवन में प्रेम और अनासक्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा होना ही जीने का अच्छा तरीका है । प्राणी मात्र के प्रति प्रेमपूर्वक और समस्त प्राणी, पदार्थ, पद, प्रतिष्ठा, पांचों विकारों के प्रति अनासक्ति रहना ही जीवन का सबसे अच्छा तरीका है । प्रेम में स्वर्ग है और अनासक्ति में मोक्ष । आप कहेंगे कि जिसके मन में प्रेम होगा उसके मन में अनासक्ति नहीं होगी और जिसके मन में अनासक्ति होगी उसके मन में प्रेम नहीं होगा । तोह इसका उत्तर यह समझ लेना चाहिए कि प्रेम और अनासक्ति में आपसी विरोध नहीं है बल्कि यह एक दूसरे के पूरक हैं । प्रेम के नाम से मोह और वासना अर्थ भी संसार में  माना जाता है । लोग कहते हैं कि अमुक लड़के को अमुक लड़की से प्रेम हो गया । यहां पर मोह और वासना को प्रेम मान लिया गया है । जबकि विवेकी प्राणी के लिए प्रेम का अर्थ निष्काम स्नेह है । जिसमें केवल सेवा करने की भावना होती है । कुछ पाने की भावना नहीं होती । मोह और वासना में कुछ पाने की भावना होती है । परन्तु प्रेम में केवल देने की भावना होती है । कबीर साहिब कहते हैं -
पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पण्डित भया न कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय ।।
कबीर साहिब का यह कथन किसी लड़का या लड़की के प्रेम के लिए नहीं है बल्कि मानवता और जीव मात्र के लिए करुणा है ।

जिसका व्यवहार मनुष्यों से प्रेमपूर्ण नहीं है । उसका जीवन उलझा रहता है । उलझे आदमी का जीना ही अच्छा नहीं है तोह मरना कैसे अच्छा हो सकता है । इसलिए जो जीवन को अच्छे से जीना चाहे उसे चाहिए कि प्रत्येक मिलने वाले से प्रेमपूर्ण व्यवहार करे । सबके प्रति प्रेम का भाव रखने से मन में क्रोध, अहंकार आदि जैसे विकार नहीं आते और मन सदैव प्रसन्न रहता है । यही स्वर्ग का सुख है ।

दूसरा विषय है अनासक्ति । प्रेम के भाव से जिसका ह्रदय शुद्ध हो गया वही ज्ञानोदय होने पर सभी से अनासक्त हो जाता है । जो सबसे अनासक्त हो जाता है उसका प्रेम और प्रतिपूर्ण हो जाता है । जो प्राणियों में मोह नहीं करता, पदार्थों में लोभ नहीं करता, प्रतिष्ठा में आकर्षित नहीं होता वही तोह अनासक्त है । वह खाता पीता है केवल देह की रक्षा के लिए उसे तोह खाने पीने में भी आसक्ति नहीं होती । सारा संसार एक दिन छोड़ देना है फिर किस वस्तु में राग द्वेष किया जाए ।

जो अपने आप को अविनाशी, देह से भिन्न मानकर खुद को सदैव चेतन समझता है और देहादि समस्त भौतिक पदार्थों को नाशवान मानकर इनसे हमेशा अनासक्त रहता है । जो सारे संसार को स्वप्न जैसा मानकर इन सबसे आ अनासक्त रहता है उसे न तोह जीने में हर्ष है न मरने में शोक । किसी से वियोग पर मन में इसलिए पीड़ा होती है क्योंकि हम उसमें आसक्त होते हैं । यदि हम आसक्त न हों तोह बिछड़ने में कोई दुख हो नहीं सकता । जिसके प्रति हमारे मन में राग द्वेष नहीं है उससे मिलने बिछड़ने से हमे कोई हर्ष शोक नहीं होता । सर्वत्र अनासक्त हुआ मनुष्य ही मुक्त है जो मुक्त है उसी का जीवन का अच्छा है । उसी का मरना भी अच्छा होता है । जो वासना युक्त रहकर देह त्यागता है वही दोबारा पुनर्जन्म में आता है और भटकता है । परन्तु वासना का त्याग कर देने से जीव मुक्त हो जाता है और जन्म मरण के चक्कर से छूट जाता है । कबीर साहिब कहते हैं कि संसार के लोग मरते तोह हैं पर वासना छोड़ कर नहीं मरते, उनमें मरते समय तक जीने, खाने, भोगने, करने, पाने की वासना रहती है इसी वासना को पुनः भोगने के लिए जीव दोबारा जन्म लेता है । जब मनुष्य वासना मुक्त होकर मरेगा तोह उसका बार बार जन्मना मरणा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा । वासना मुक्त हो चुके प्राणी मरने से डरते नहीं बल्कि वो तोह मौत के इंतजार में रहते हैं । कबीर साहिब ने कहा है -
जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद ।
कब मरूं कब पाऊँ, पूर्ण परमानन्द ।।
पर वासना के प्रति अनासक्ति का भाव लाने के लिए जीव के मन में प्रेम का भाव होना चाहिए और यह सबली तभी सम्भव है जब जीव को पूरे गुरू की शरण प्राप्त हो जो गुरू खुद तोह संसार के प्रति अनासक्त हो और उसकी संगत व उसके कहे में चलकर जीव भी उसी के जैसा हो जाता है ।
साहिब बंदगी 

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