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मन के अहंकार को त्यागे बिना, सांसारिक त्याग सार्थक नहीं ।



माया तजे तोह क्या भया, जो मान तजा नहीं जाए । 
जेहि मान मुनिवर ठगे, सो मान सबन को खाए ।।

इस साखी में कबीर साहिब ने साधु लोगों के अहंकार की बात की है । घर, परिवार, धन, दौलत को छोड़कर साधु बन गये और साधु बनकर अपने त्याग का अपने साधु होने का अहंकार पाल लेने से कोई फायदा नहीं होने वाला । साधु का वेष ही मृतक का चिन्ह है जिसमें पूरी विनम्रता होनी चाहिए । जो संसार से मर गया उसे क्या अहंकार हो सकता है । संसार में जीव देह को छोड़कर चला जाता है तब उसे मरना कहा जाता है । और साधु दशा में मन के सारे अहंकार जब समाप्त हो जाते हैं तब उसे साधुत्व कहा जाता है ।

 परन्तु आश्चर्य है कि कितने लोग साधु का वेष धारण करने के बाद अहंकार की महामूर्ति हो जाते हैं । धन का नशा, विद्या का नशा, पद का नशा तो होता ही है पर त्याग का नशा भी आ जाता है । सारे नशे जीव को पतित करने वाले हैं । आप पुराण और महाकाव्यों को पढ़िये तोह पता चलेगा कि कैसे ऋषि मुनि छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे को श्राप देते, मारा मारी करते और एक दूसरे के आश्रम जला देते थे । वशिष्ठ विश्वामित्र का और विश्वामित्र वशिष्ठ का विध्वंस करते हैं । जितना त्याग और तप उससे कहीं ज्यादा क्रोध और अहंकार । बाहरी त्याग पूरी तरह निरर्थक है जब तक मन पूर्ण अहंकार का त्याग नहीं किया जाता ।

अहंकारी आदमी भ्रांति में जीता है । कोई अपने मत को पुराना तथा युक्तियुक्त बताता है तोह कोई अपने मत को । कोई अपने मत को ईश्वर का मत बताता है तोह कोई अपने मत को अल्लाह की आवाज । वह यह समझते हैं कि केवल वही सत्य को जान सकते हैं । आजतक लोगों ने ईश्वर के विषय में केवल कल्पनाए की हैं । यहां तक भी मिथ्याभिमान किया जाता है कि हमने कल्पित ईश्वर से मुलाकात की है । ईश्वर ने केवल हमे ही समाज कल्याण की ठेकेदारी दी है । संसार में अनेकों मत हैं उसमें से अनेकों तोह ऐसे हैं जो अपने आप को आस्तिक या नास्तिक मान बैठे हैं । यह सभी अहंकार मिथ्या हैं, वस्तुतः सभी मनुष्य मूलतः समान हैं । जो जितना प्रेम, मिलनता, सदभाव, निम्रता का भाव रखता है वह उतना ही वास्तविकता को समझता है और अपने आप को अपने निज स्वरूप के करीब पाता है । ऐसे गुणों वाले का ही साधु का भेष धारण करना असल में सार्थक है ।
साहिब बंदगी

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