मन मतंग गइयर हने, मनसा भई सचान ।
जंत्र मंत्र माने नहीं, लागी उड़ि उड़ि खान ।।
( मतंग - हाथी, गइयर- महावत, हने- मारता है, मनसा- इच्छाएं, सचान- बाज पक्षी)
मन उन्मत्त हाथी के समान है यह जीव रूपी महावत को मारता रहता है । और इच्छाएं बाज पक्षी के समान हैं जो उड़ उड़कर जीवों को खाता रहता है ।
जीव अविनाशी चेतन है और मन एक आभ्यासिक वृति मात्र है । परन्तु जीव अपने स्वरूप को भूल कर दीन बन गया है और उसकी बनाई वृति ही उसपर सवार हो गयी है । महावत हाथी पर सवार होकर अंकुश से उसे काबू में रखता है, परन्तु जब हाथी उन्मत्त हो जाए तोह तोह वह महावत को गिराकर मार देता है । हाथी एक शक्तिशाली देह वाला है इसलिए वह महावत को मार सकता है, परन्तु मन कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं जो बलपूवर्क जीव को मार दे । मन तोह इसलिए जीव को परेशान करता है क्योंकि जीव अपना स्वरूप भूल कर विषयों का गुलाम बना रहता है । यदि जीव अपने स्वरूप को जान ले और अपने आप में स्थित हो जाए तोह मन उसका गुलाम हो जाएगा । जिसको स्वरूप ज्ञान हो जाता है वह इच्छाओं को छोड़ देता है और मन उसके अधीन हो जाता है ।
कबीर साहिब ने मन और उसकी इच्छाओं के उन्मत्त हाथी और बाज पक्षी के सुंदर व सटीक उदाहरण दिए हैं । मन और इच्छा यद्यपि कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रखते, यह तो जीव का आभास मात्र हैं । परन्तु जीव के अपने अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूल जाने के कारण यह जीव को गिराने के काबिल हो गये हैं । बीड़ी सिगरेट की आदत कौनसा कोई स्वतंत्र वस्तु है, पर जीव इसको लगाकर इसी में खूद को परस्त पाता है ।
जैसे बाज पक्षी उड़ उड़कर दूसरे जीवों को मारकर खा रहे होते हैं, वैसे ही मनुष्य द्वारा बनायी गयी इच्छाएं उसे खा रही हैं । इसमें किसी यंत्र मंत्र आदि से कुछ नहीं होता, कबीर साहिब कहते हैं बड़े बड़े यंत्र मंत्र जानने वाले खुद मन और इच्छाओं के गुलाम बने बैठे हैं । यंत्र मंत्र तोह केवल जीव को फंसाने के पाखण्ड है, जीव ने इसे पैदा किया और खुद ही इसमें उलझ गया ।
मन गयन्द माने नहीं, चले सुरति के साथ ।
महावत विचारा क्या करे, जो अंकुश नहीं हाथ ।।
कहने का भाव है कि अगर जीव के पास विवेक रूपी अंकुश न हो तोह मन रूपी हाथी और बाज रूपी इच्छाएँ उसको मार देती हैं । पर जब विवेक ज्ञान हो तोह जीव न तोह मन का गुलाम रहता है और न ही इच्छाओं का । विवेक से ही वास्तविक्ता का बोध होता है, सही गलत का बोध होता है । विवेकवान मनुष्य कभी भी वासना का गुलाम नहीं होता बल्कि वासनाएँ उसकी गुलाम बनकर रहती हैं । मन और इच्छाओं पर काबू पाने के लिए विवेक रूपी अंकुश होना जरूरी है ।
साहिब बंदगी
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