बड़े गये बड़ापने, रोम रोम हंकार ।
सतगुरू के परचै बिना, चारो वरण चमार ।।
मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह है कि कि भौतिक पदार्थों का अहंकार करना । धन, विद्या, जाति, शरीर, जवानी, सौंदर्य आदि भौतिक पदार्थों में मनुष्य इतना डूबा हुआ रहता है कि इन क्षणिक वस्तुओं को लेकर इतराता रहता है । सारे अहंकार की जड़ शरीर है और इसके गलते तथा विनशते देर नहीं लगती । तोह मनुष्य किस चीज़ का अहंकार करता है । शरीर के छूटते ही सभी वस्तुओं से नाता छूट जाता है । फिर उसका क्या रह जाता है । कुछ कागज के टुकड़ों, ईट, पत्थरों को समेट कर मनुष्य खुद को धनी मान लेता है । पेट की ज्वाला शांत करने के लिए थोड़ा अन्न, तन ढकने के लिए दो कपड़े और सिर ढकने के लिए थोड़ी छत । जीवन निर्वाह के लिए यही सब ही तोह चाहिए होता है इससे ज्यादा समेट कर रखने का क्या फायदा , पर मनुष्य ज्यादा को समेट कर अपने आप को धनी समझता है ।
विद्या का क्या घमंड, कुछ काल्पनिक रूढ़ियों को भाषा व संकेतिक चिन्हों को लिपि कहते हैं इन्हीं को रट रट कर विद्या का घमंड करने का क्या फायदा । सारी तथाकथित विद्यायें वस्तुओं को जानने समझने के लिए है । पशु पक्षी तोह बिना भाषा के ही अपना जीवन।निर्वहण करते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि विद्या को नहीं पढ़ना चाहिए, विद्या का इस्तेमाल समाज कल्याण व मानवता की सेवा के लिए होना चाहिए न कि घमंड के लिए । घमंड से तोह विद्या अविद्या बन जाती है ।
सुंदरता बोहत जल्दी मिट जाती है, जवानी को जाते देर नहीं लगती । पद प्रतिष्ठा यह सब दो दिन की चांदनी है । इन सब स्वप्न समान वस्तुओं का घमंड करना भोलापन है ।
वर्णव्यवस्था की लाश सड़ गयी है अब उसमें से केवल बदबू निकल रही है, परन्तु उसको लेकर अहंकार में कमी नहीं है । ऐसा नहीं कि केवल तथाकथित ब्राह्मण ही अहंकार के बुखार से पीड़ित है । दूसरे वर्ण जाति के कहलाने वाले लोग भी अहंकार के बुखार से पीड़ित हैं । आज भी एक आदमी दूसरे आदमी को जन्मजात अछूत मानता है । जबकि दोनों के शरीर में टट्टी पेशाब भरा पड़ा है । जब तक हमे अपने वास्तविक निज चेतन स्वरूप का बोध नहीं है तब तक हम देह हैं तब तक चारों वर्णों के लोग चमार हैं । अहंकार का मूल शरीर ही है जब तक आदमी जाती वर्ण का अहंकार करता है तब तक वह चमार ही है । जीव आत्मा ब्राह्मण, राजपूत, क्षुद्र, जैन, वैश्य, ईसाई, मुस्लिम आदि नहीं है, उसका स्वरूप चेतन का है । वर्ण जाति तोह सब देह तक ही कल्पित किये जाते हैं । वर्ण जाति का अहंकार करने वाले चाम की बुद्धि रखने वाले हैं इसलिए वह चमार हैं । कबीर साहिब एक वर्ण को चमार नहीं कहते बल्कि सभी देह के अहंकार रखने वालों को चमार कहते हैं ।
एक कहानी है, मिथिला के राजा जनक की सभा लगी थी, वहां ऋषि मुनि ज्ञानी विद्वान आदि विद्यमान थे । वहां एकाएक अष्टावक्र मुनि आ गये । उनके सभी अंग टेढ़े थे । वहां सभी लोग राजा जनक को ब्रह्न का ज्ञान देने आए थे । अष्टावक्र भी जनक को ब्रह्म ज्ञान देना चाहते थे । अष्टावक्र को देखकर सभा के लोग हंसने लगे । अष्टावक्र ने भी सभा को देखकर हंस दिया । तोह सभा के लोग उनको कहने लगे कि आप क्यों हंसे ? अष्टावक्र ने भी उनसे पूछ लिया कि आप लोग क्यों हंसे ? सभा के लोग कहने लगे कि हम इसलिए हंसे कि टेढ़े मेढे अंगों वाले।अष्टावक्र भी राजा जनक को ब्रह्न ज्ञान देने आए हैं । तोह अष्टावक्र ने कहा कि मैं यह सोचकर हंसा कि यह चमारों की टोली राजा जनक को ब्रह्म ज्ञान देने आई है । यह सुनकर सभा के लोग क्रोधित हो गए कि अष्टावक्र ने हमको चमार क्यों कहा । अष्टावक्र ने कहा कि जो चाम की बुद्धि रखता हो वह चमार नहीं है तोह क्या है ? आपने मेरे टेढ़े मेढ़े शरीर को देखकर हंसना शुरू कर दिया । गन्ना टेढ़ा होते हुए भी उसका रस टेढ़ा नहीं होता, नदी टेढ़ी होती है पर उसका पानी टेढ़ा नहीं होता । महत्व देह का नहीं ज्ञान का है । अष्टावक्र की बात से सारी सभा का सिर लज्जा से झुक गया ।
अतएव यदि मानव जाति में भेद किया जाए तोह केवल दो जातियां बनती हैं एक ब्राह्मण और एक चमार । जो चाम की बुद्धि रखने वाला हो वह चमार और जो खुद को देह से अलग चेतन स्वरूप मानता हो वह ब्राह्मण है ।
साहिब बंदगी
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