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Showing posts from July, 2018

अपनी स्वरूपस्थिति के महल में निवास करो, वह महल परम् शांति देने वाला है ।

शब्द हमारा आदि का, पल पल करहू याद । अंत फलेगी माँहली, ऊपर की सब बाद ।। कबीर साहिब जीव को बारम्बार बोध देते हैं । वह जीव को अपनी वाणियों से जगाकर अपने स्वरूप ज्ञान व स्वरूप स्थिति की ओर खींचते हैं । साहिब कहते हैं मैं तुमको स्वरूपज्ञान की याद दिलाता हूं । अपने स्वरूप को पल पल याद करो । स्वरूप ज्ञान वाणियों का चिंतन मनन करने से जीव स्वरूप ज्ञान के प्रति दृढ़ हो जाता है । इसका फल यह होता है कि जीव माँहली हो जाता है यानी अपने निज स्वरूप के महल में भवन में निवास करने लगता है । जीव का महल क्या है ? क्या जो ईंट, सीमेंट, लोहे या लकड़ी से खड़ा कर लिया यह जीव का महल है ? बिल्कुल नहीं । यह तोह इस शरीर के रहने के लिए दो चार दिन का मुसाफिर खाना है । जीव का महल तोह उसकी अपनी स्वरूप स्थिति है । आत्मस्थिति या स्वरूप स्थिति ऐसा पक्का महल है जो न कभी गिरने वाला है न कभी छूटने वाला है । जेठ की दोपहर में जलता, वर्ष में भीगता, पोह की सर्दी में कांपता मनुष्य जब अपने मकान में आ जाता है तोह कितना आराम अनुभव करता है, कितना आनंद अनुभव करता है, यह सभी का अपना अपना अनुभव है । यह तोह क्षणिक है । क्योंकि प...

सतगुरू कौन होता है ? कबीर साहिब ने पूरे सतगुरू की क्या पहचान बताई है, जानें ...

शब्द शब्द सब कोई बखानै । शब्द भेद कोई नहीं जानै ।। ज्ञानी गुणी कवीश्वर पण्डित । सबहिन कीन्ह शब्द को मंडित ।। शब्द सुरति आवै संसारा । आपै समरथ रहे नियारा ।। शब्द अगम गति पावै नाहिं । भूलि रहे सब भर्मे माहिं ।। जब साधक जिज्ञासु भलि भांति सतगुरु के विचार सत्संग से सतुंष्ट हो जाए, तब सतगुरू का उपदेश ग्रहण करे । उपदेश के समय यदि सतगुरू वाणी वचन द्वारा मन्त्र जप अनहद जप आदि जैसी कोई भी साधना का संकेत दे तोह कदापि स्वीकार न करें । अपितु इनसे प्रेम प्रार्थना के माध्यम से सार शब्द की जानकारी लें । यदि इतने पर वह सार शब्द का उपदेश करने में असमर्थ रहे तोह वह सतगुरु कदापि नहीं है । वह तोह सतगुरू का भेस धारण कर जीवों को धोखे में डालने वाला मन मुखी मत वाला गुरू है जिसे काल एजेंट भी कहा गया है । सतगुरू बनाने से पूर्व पूरी छानबीन कर लें यदि इसके बाद भी कभी भूल त्रुटि हो जाये तोह गुरू का त्याग करने में संकोच नहीं करना चाहिए । कबीर साहिब कहते हैं - जग लग मिलै शब्द नहि साँचा । कीजै गुरू एक से पाँचा ।। हां यदि सार शब्द के भेदी सतगुरु का त्याग करोगे तोह अवश्य ही अपराधी कहलाओगे और सज़ा पाओगे...

मन और इंद्रियों की विषय वासना को त्यागो, नौजवान लोग जरूर पढ़ें

नैनन आगे मन बसे, पलक पलक करे दौर । तीन लोक मन भूप है, मन पूजा सब ठौर ।। भावार्थः मन नेत्रों के आगे बसता है और पलक पलक दौड़ लगाता है । सभी जीवों के ऊपर मन राजा बन बैठा है । सब जगह मन की ही पूजा हो रही है । व्याख्या: जागृति अवस्था में मन की वृति वस्तुतः नेत्रों के सामने ही रहती है । मनुष्य नेत्रों से जो जो देखता है उसी में उसका मन चला जाता है और उसे जो दृश्य प्रिय लगता है उसका वह मनन करने लगता है । रूप की तरह शब्द विषय भी ज्यादा संवेदनशील होता है । शब्दों को सुनकर मन उसका मनन करता है । मनुष्यों में गंध की आसक्ति ज्यादा नहीं होती । स्पर्श और रस इन दो विषय इंद्रियों को छूहकर ही मन आंदोलित रहता है । परंन्तु रूप और शब्द दूर से ही मन को प्रभावित करते रहते हैं । दृष्टि से देखा जाए तोह शब्द विषय का जिसे कबीर साहिब बावन कहते हैं का सबसे ज्यादा प्रभाव है । यह नाना किताबों से साधक और बाधक के पास पहुंचते रहते हैं । इस साखी में कबीर साहिब ने नेत्रों के विषय के संबंध में मन के पलक पलक रमने की बात कही है जो कि परम सत्य है । जागृति अवस्था में नेत्र प्रायः खुले रहते हैं और जो जो इनके सामने आता ...

सतगुरू के बिना मनुष्य की क्या हालत होती है, जानें ...

जाको सतगुरू न मिला, ब्याकुल दहूँ दिश धाय । आंख न सूझे बावरा, घर जरै घूर बुताय ।। सतगुरू कबीर साहिब इस साखी में बता रहे हैं कि जिस जीव को सतगुरु की शरण नहीं मिलती वह ब्याकुल होकर दसों दिशाओं में घूमता है फिर भी मार्ग नहीं पाता । गुरू और सतगुरू में अंतर होता है, माता पिता, दाई, विद्या पढ़ाने वाला, एक एक विद्या देकर या कला सिखाने वाला या किसी मत की दीक्षा देकर सन्मार्ग पर लगाने वाले यह सब गुरू हैं । गुरू बोहत होते हैं एक गुरू के बाद दूसरा गुरू स्वीकारा जाता है । परन्तु सतगुरू केवल एक ही होता है वह दो नहीं हो सकते । जिसको सतगुरू की शरण मिल जाए उसको फिर कोई दूसरा सतगुरू नहीं ढूंढना पड़ता । गुरूओं की शरण में जाकर जब तक यतार्थ बोध न मिला तब तक समझो सतगुरू नहीं मिला । सतगुरू मिलने पर सारी भ्रांतियां मिट जाती हैं और यथार्थ बोध हो जाता है । कबीर साहिब कहते हैं जिसको सतगुरू नहीं मिला वह अशांत होकर दशों दिशाओं में भटकता है । पूर्व, पच्छिम, उत्तर, दक्षिण, अग्नेय, ईशान, वायव्य, नैऋरती, ऊपर और नीचे यह दस दिशाएँ मानी गयी हैं । विवेकहीन प्राणी परमात्मा या मोक्ष को पाने के लिए दशों दिशाओं में भट...

मन क्या है ? जानें ...

महमता मन मारिले, घट ही माहिं घेर । जबहिं चाले पीठ दे, आंकुस दे दे फेर ।। यह मन नीचा मूल है, नीचा कर्म सुहाए । अमृत छोड़ मान करि, विष ही प्रीत करि खाय ।। मन कोई स्वतः सिद्ध वस्तु नहीं है उसके आधीन रहने वाली दशो इन्द्रियों के साथ वह एक काल्पित और जड़ पदार्थ है, चेतन्य के सत्ता से ही प्रकाशित है । यद्यपि वासना मन को होती है तोह भी उसके साथ - साथ अल्पित आत्मा भी घसीटी जाती है । जैसे जल में सूर्य का प्रतिबिंब पड़ने से वह चमकने लगता है, जल तोह जड़ रूप ही है, उसमें प्रकाशित होने की स्वतंत्र शक्ति नहीं है, ऐसे ही मन को जानना चाहिए । क्योंकि मन भी जड़ है वह अपने आप कुछ नहीं कर सकता लेकिन चेतन के सम्बंध से नाना प्रकार का संकल्प विकल्प करता रहता है । आत्मा महारथी है, मन सार्थी है, इंद्रियां घोड़े हैं , मन जिधर इन्द्रियों रूपी घोड़े को हाँकता है उधर ही घोड़े दौड़ते हैं और शरीर रूपी रथ भी उधर ही खिसकता चला जाता है । मन आत्मा के सत्ता आधीन होने पर भी स्वेच्छा अनुसार गति क्रीड़ा करता रहता है । मन ऐसा प्रबल है कि नाना प्रकार के उपाय करने पर भी वश में नहीं होता । यह भी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और अस...

सत्य क्या है ? जानें ...

सत्य क्रिया निर्वाण है, है तन मन से भिन्न । मन पवन दृढ़ कर गहे, सत्य नाम निज चीन्ह ।। सत्य क्या है ? कैसा है ? कबीर साहिब कहते हैं सत्य नाम रूप रहित है, उसे किसकी उपमा दूं ? यह सत्य परम प्रकाशित है, सर्वत्र है, तन मन से अलग है । जहां सूर्य नहीं, नक्षत्र पति नहीं, नक्षत्र नहीं, जिसके जानने से देखने से जो फल सिद्ध होता है, दूसरा और सिद्ध नहीं । जिसके सुख से बढ़कर अन्य सुख नहीं , जिसके समान अन्य सौंदर्य अथवा ज्ञान नहीं । जिसके दर्शन से और श्रेष्ठ दर्शन नहीं, जिसके दर्शन होने से अन्य किसी के दर्शन की अभिलाषा नहीं, दर्शन से मतलब अनूभूति से आंखों वाले दर्शन से नहीं । वही सत्य है । इसी से राम, कृष्ण आदि प्राणी और अन्य जीवित प्राणी हुए हैं । इस सत्य दर्शन के लिए हर प्राणी को सदा तत्पर रहना और उत्साही बनकर मंथन करते रहना चाहिए । मथे शब्द जब आत्म जागे, टरे न दसवें दरसों । सत्य की खोज़ ही ईश्वर की खोज़ है । ईश्वर की हस्ती में विश्वास न रखने वाले नास्तिक भी सत्य पर विश्वास करते हैं । ईश्वर के नाम तो अनन्त हैं , लेकिन सत्य सर्वोपरि नाम है , सत्य की प्राप्ति के साधन कठिन हैं इससे यह नहीं क...

संसार रूपी काजल की कोठरी में से बाहर निकलने में केवल मनुष्य समर्थ है ।

काजल केरी कोठरी, बुड़ता है संसार । बलिहारी तेहि पुरूष की, जो पैठि के निकरनहार ।। जब जीव शरीर धारण करता है, जन्म लेता है तोह धीरे धीरे संसार के विषय विकार उसको लगते जाते हैं । दिन जितने बीतते जाते हैं वह माया में निरंतर डूबता जाता है । बालक, किशोर, अधेड़, वृद्ध जो भी उसे मिलता है वो प्रायः विषय विकारों का ही पाठ उसे पढ़ाते हैं । उसे नये नये दुर्गुण और बुराइयां सीखाते हैं । इस संसार में प्रवेश करना मानो अंधकार में प्रवेश करना है । आप जिधर देखोगे मन को खराब करने वाली बातें देखोगे सुनोगे । ज्यादातर लोग रजोगुण और तमोगुण में लिपटे हुए नज़र आएंगे । इनकी संगत का भी यही पप्रभाव होता है, इनकी संगत में पड़कर कितने ही सज़्ज़न लोग बिगड़ जाते हैं । कहने का भाव है कि जीव देह करके काजल की कोठरी में गिर पड़ता है अर्थात माया के मुंह में गिर जाता है । बलिहारी तेहि पुरुष की, जो पैठि के निकरनहार । कबीर साहिब कहते हैं कि मैं जीव के बलिहारी जाता हूँ जो इस काल कोठरी में आकर खुद को इससे निकाल लेता है । मैं उस पुरूष पर कुर्बान हो जाता हूँ । यहाँ पुरूष से मतलब स्त्री पुरूष से नहीं है बल्कि चेतन जीव आत्मा को प...

परम् आत्मा और जीव आत्मा के बारे में जानें ।

ज्यों पये मद्धे घीव है, त्यों रमैया सब ठौर । कथता बकता बहुत है, मथि काढ़े सो और ।। इस बोलते का खोज़ कर, जिसका इलाही नूर है । जिन प्राण पिंड सवारिया, सो हाल हज़ूर है ।। गज वाजि द्वारे झूमते, सो रातों का जहूर है । काजी पण्डित वेद पढ़ि, करता फिरे मगरूर है । मुर्शिद शब्द चेता नहीं, यही तोह गफलत कूर है ।। कहे कबीर घट चेत ले, तेरे में तेरा नूर है । नूर पर जहूर दर्शे, जब साहिब भरपूर है ।। संसार में रहने वाले जीवों को मोक्ष मार्ग से रोकने वाली माया बड़ी प्रबल है, तथा अनेक प्रकार से कष्ट देने वाली है, यह माया आत्मा के स्वरूपों को भूला देती है । जीवात्मा - सत, रज, तम यह तीन गुण और शुभाशुभ कर्म का कर्ता भोक्ता इस सबके सहित जो त्वम पद अविद्या के बंधन में चेतन आत्मा है उसे जीव कहते हैं । परमात्मा - यहां महाचेतन सत्यपुरुष परमात्मा प्रकृति, जीव ईश्वर, ब्रह्म, ज्योति, अनहद और बावन अक्षरों आदि से परे है । इसी को सार शब्द, सत्यनाम, निःअक्षर आदि नाम भी कहते हैं । वह उपमा रहित है इसी का उपदेश कबीर साहिब का है । साखी - आत्म चिन्ह परमात्म चीन्हे, संत कहावे सोई । यहे भेद काया से न्यारा, जाने व...

बावन अक्षरों के मायाजाल को ज्ञान की कसौटी द्वारा विवेक से परखना चाहिए ।

हरि ठग ठगत ठगौरी लाई, हरि के वियोग कैसे जियहु रे भाई ।। को काको पुरूष कौन काको नारी, अकथ कथा यम दृष्टी पसारी ।। को काको पुत्र कौन काको बाप, को रे मरे को सहे संताप ।। ठगि ठगि मूल सबन का लीन्हा, राम ठगौरी काहू न चीन्हा ।। कहहि कबीर ठग सो मन माना , गई ठगौरी का जब ठग पहिचाना ।। बीजक के इस शब्द में कबीर साहिब ज्ञान को हरने वाले हरि शब्द के बावन अक्षर पौ माया तथा शब्द मन्त्रों का उपदेश करने वाले गुरु लोगों के प्रति संकेत किया है । इस संसार में परमात्मा के वियोगी जिज्ञासु साधकों को अज्ञानी गुरुवों लोगों ने बावन अक्षरों के अज्ञान के द्वारा उनके आत्म ज्ञान को ठग लिया है । अतः ऐसे परमात्मा के प्रेमी वियोगी साधक किस प्रकार सुख शांति पा सकते हैं । इस संसार में न तोह कोई किसी का पति है और न कोई किसी की स्त्री । स्वस्वरूप में सब चाहे वह पुरूष हो या स्त्री एक चेतन आत्मा ही है । अज्ञानी गुरुवा लोगों ने स्त्री पुरूष जैसे द्वंदों का झगड़ा फैला दिया है । इसी तरह न तोह कोई किसी का पिता है और न किसी का पुत्र । माता पिता, पुत्र का झूठा नाता दिखावटी है । अज्ञान वश पुत्र की मृत्यु पर पिता द...

मन का काम ही है विषयों में उलझना, पर मन को काबू करना हमारे हाथ में है ।

मन स्वार्थी आप रस, विषय लहर फहराय । मन के चलाये तन चलै, जाते सरबस जाय ।। मन स्वार्थी है, खुदगर्ज है । यह सदैव अपने रस में डूबा रहता है । उसे सदा विषयों का स्वाद प्रिय है क्योंकि मन अनादिकाल से विषयों में ही आसक्त (डूबा हुआ) है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह पांच विषय हैं । सामान्य मनुष्य के मन में हर समय कोई न कोई विषय की लहर विद्यमान रहती ही है और वह उसी में डूबा रहता है । साधारण मनुष्य भी हर समय अपने मन को रोकता है, जिस विषय से वह अपने मन को रोक नहीं पाता, तब वह कम से कम अपनी इंद्रियों को तोह रोक ही लेता है । मनुष्य का मन जिस तरह हर क्षण सोचता है, अगर इंद्रियां भी उसी अनुसार चलने लग जाएं तोह मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । जब किसी एक विषय में मनुष्य का मन निरंतर लगा रहता है तोह उस विषय के प्रति उसे मोह जकड़ लेता है और मनुष्य उस विषय के आगे असहाय होकर उस में बह जाता है । कोई साधारण गृहस्थी व्यक्ति या साधक व्यक्ति, जब वह  स्त्रियों के कामोद्दीपक अंगों के सहित उनका स्मरण करता रहेगा, वह एक न एक दिन अपने पद से गिर जाएगा । मन विचलित होने पर शरीर विचलित हो जाता है, जब मन और तन दोन...

अपने खुद के आत्मस्वरूप से बाहर कोई परमात्मा नहीं है ।

अस्ति कहौं तोह कोइ न पतीजे, बिन अस्ति का सिद्धा । कहहिं कबीर सुनो हो सन्तों, हीरी हीरा बेधा ।। मनुष्य का आत्म अस्तित्व ही सर्वदा सत्य व विद्यमान (अस्ति) वस्तु है । जब कोई उसकी ओर सुझाव देता है तोह कोई विश्वास नहीं करता । लोग अत्यंत मिथ्या व काल्पनिक वस्तु का पक्ष देकर सिद्ध बन रहे हैं । कबीर साहिब कहते हैं सुनो सन्तों , जैसे हीरे के कण ही हीरे को काट देते हैं उसी तरह जीव के मन से पैदा हुई कल्पना ही उसका पथभ्र्ष्ट कर रही हैं । आइये अब विस्तार से जानते हैं , अस्ति कहते हैं सत्ता को, वह मैं के स्वरूप में है । मैं के दो रूप हैं, एक माया वाला और दूसरा आत्मिक । शरीर व शरीर के नाम आदि तक जहां भी मैं इस्तेमाल किया जाता है वह माया का मैं है । और चेतन सत्ता मात्र मैं आत्मिक व परमसत्य है । यह मैं ही वास्तविक सत्ता है और सत्य भी । अपने आप के विषय में तोह किसी को संदेह नहीं होता कि मैं हूँ या नहीं । मैं तोह निःसंदेह हूँ । आप कुछ सोच रहे हैं सन्देह कर रहे हैं तोह इसका मतलब कोई है जो यह सब कर रहा है, अगर कोई होगा ही नहीं तोह कैसा सन्देह कैसा सोच विचार । यह जो सोचने वाला है यही विचार करने वाल...

हिन्दू और मुसलमानों की भूल ।

कितनो मनावो पाँव परि, कितनो मनावो रोय । हिन्दू पूजे देवता, तुर्क न काहू होय ।। क्या हिन्दू क्या मुसलमान, यह दोनों जीवित प्राणियों में परमात्मा को नहीं देखते । यह या तोह मिट्टी, पत्थर, काष्ट, अष्टधातु की मूर्तियों में परमात्मा को देखते हैं या शून्य आकाश में देखते हैं । इसलिए वह परमात्मा को प्रेम समर्पण के लिए भेड़, बैल, भैंस, बकरा, गाय, ऊँट, मुर्गा, सूयर आदि की बलि या कुर्बानी देते हैं जो कि घोर जंगलीपन है । जीवित देहधारी प्रत्यक्ष देवता है, उन्हें पत्थर के देवता या शून्य आकाश में स्थित किसी अल्लाह के नाम पर मार काट देना कितनी अज्ञान की बात है । न तोह पत्थर पिंडी आदि में कोई ईश्वर है और न ही शून्य आकाश में कोई अल्लाह है । मानव देहि तोह प्रत्यक्ष देवता है,  ईश्वर का ही अंश सभी जीवित देहों में समाया हुआ है , इन जीवित प्राणियों की पूजा करनी चाहिए इनका सत्कार करना चाहिए । परंतु आदमी के दिमाग को लकवा मार गया है वह पत्थरों में ईश्वर देखता है पत्थर पूजता है, शून्य आकाश में किसी ईश्वर को देखता है । और उसके नाम पर जीवित प्राणियों को मारता है । जिंदा प्राणियों में ईश्वर को नहीं द...

एक अज्ञान के कारण सभी योग्यताएं व्यर्थ चली जाती हैं ।

नौ मन दूध बटोरि के, टिपके किया बिनाश । दूध फाटि काँजी भया, हुवा घृत का नाश ।। नौ मन दूध इकट्ठा किया गया, परन्तु उसमें सिरके आदि खट्टे पदार्थ की कुछ बूंदे डाल दी गयी तोह सारा दूध ही नष्ट हो गया । क्योंकि दूध फटकर खट्टा पानी हो गया और घी का नाश हो गया । इस साखी में कबीर साहिब ने नौ मन दूध इकट्ठा करने की बात कही है, जिसका लाक्षणिक अर्थ है पांच तत्व, तीन गुण युक्त अष्टधाप्रकृति और नौंवा जीव अर्थात अष्टधा प्रकृति युक्त मनुष्य देह में जीव निवास करता है । परन्तु अज्ञान का टिपका पड़ने से सारी योग्यताएं व्यर्थ हो जाती हैं । अगर नौ मन दूध का अष्टधा प्रकृति और जीव से अर्थ न भी लिया जाए तोह भी काम चल जाता है । नौ मन दूध का लाक्षणिक अर्थ है पूरी योग्यता । इसमें कारण है 1 से 9 तक के संख्या अंक, इसके बाद 0 होता है, यही घूम घुमाकर अंकों की संख्या बनाते हैं । इसलिए नौ मन संख्या की अधिकता का सूचक है । जैसे कहावत है " न नौ मन तेल इकठ्ठा होगा और न राधा नाचेगी " । आठ मन या दस मन कहने का प्रचलन नहीं है किंतु नौ मन कहने का प्रचलन है । "नौ मन दूध बटोरि के" का सरल लाक्षणिक अर्थ है...

मनुष्यों में केवल गुण सर्वश्रेष्ठ हैं, गुणविहीन मनुष्य तोह पशुओं से भी बेकार है ।

मानुष तेरा गुण बड़ा, ,माँसु न आवै काज । हाड़ न होते आभरण, त्वचा न बाजन बाज ।। मनुष्य की विशेषता उसके उत्तम विचारों व सद्गुणों में है । यदि उसने अपने मानवीय गुणों व सद्गुणों का विकास नहीं किया तोह वह पशुओं से भी खराब है । पशुओं के बाल, हड्डी, चमड़ी आदि दूसरों के काम आ जाते हैं, पशु अपने जीवनकाल व मरने के बाद भी दूसरों की सेवा में लग जाते हैं । पशु अपने स्वभाविक कर्म को छोड़कर कोई दुष्कर्म नहीं करते । पशु जब किसी की फसल को चरता है तोह पेट भर जाने के बाद चरना छोड़ देता है । मनुष्य का पेट भरा रहने के बाद भी वह दूसरों के घर चोरी करता है, जेब काटता है, मिलावटखोरी, घूसखोरी, चोरबाजारी, जमाखोरी, धोखेबाजी आदि सब अपराध करता है । जिन पशु पक्षियों के जो स्वभाविक भोजन हैं, वह उसे ही ग्रहण करते हैं । जो पशु पक्षी मांसाहारी होते हैं वह प्रायः मांस ही खाते हैं और जो शाकाहारी होते हैं वह मांस नहीं खाते । मनुष्य ऐसा जंतु है जो शाकाहारी होकर भी मांस खाता है । वह बैल, गाय, भैंस, बकरा, सांप, भेड़, मेंढक, मुर्गा, सूयर आदि अब चट कर जाता है । इतना ही नहीं मनुष्य शराब, गांजा, भांग, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट आदि...

कर्मों के बंधन व इनसे जीव मुक्त कैसे हो ?

तौ लौं तारा जगमगै, जौ लौं उगै न सूर । तौ लौं जीव कर्म वश डौलै, जौ लौं ज्ञान न पूर ।। कबीर साहिब का इस साखी का उदाहरण कितना सटीक है यह समझते ही बनता है । तारे रात को जगमगाते हैं । वे अपनी पूर्ण चमक दमक के साथ प्रकाश करते हैं । परन्तु उनकी चमक दमक तभी तक है जब तक सूर्य उदय नहीं होता । सूर्य के उदय होते ही वह दिखाई भी नहीं देते । यही दशा जीवों के कर्मों की है । सब जीव शुभाशुभ कर्मों के अधीन बने संसार सागर में भटक रहे हैं । यह कर्मों की जगमहागट इसलिए है कि जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है । जब स्वरूपज्ञानी सूर्य उदय होता है तब अज्ञान अंधकार अपने आप समाप्त हो जाता है । फिर जीव का भटकना भी बंद हो जाता है । जन्म मरण से छूटकर जीव का अपने स्वरूप में स्थित होना यह जीव का भटकना बंद होना है । परन्तु इसका व्यवहारिक पक्ष है देह रहते रहते मानसिक द्वन्दों से मुक्त होकर प्रशांत हो जाना जो सबके अनुभव की बात है, यही सर्वाधिक उपयोगी है । ज्ञानोदय का अर्थ यह नहीं है कि बोहत बौद्धिक ज्ञान या शास्त्रज्ञान हो जाए । ज्ञानोदय का अर्थ है अपने  चेतन स्वरूप को जड़ से सर्वदा भिन्न समझकर विषय वासनाओ...