Skip to main content

Posts

Showing posts from June, 2018

जीव हत्या का पाप नहीं छूट सकता, चाहे करोड़ों बार तीर्थ व दान पुण्य कर लिए जाएं ।

जीव मति मारो बापुरा, सबका एकै प्राण । हत्या कबहूँ न छूटिहैं, जो कोटिन सुनो पुराण ।। जीव घात न कीजिए, बहुरि लैत वह कान । तीर्थ गये न बाँचिहो, जो कोटि हीरा देहु दान ।। सामान्य तोह सामान्य हैं कितने ही धार्मिक कहलाने वाले लोग मनुष्य के अलावा सभी जीवों को मारकर खाने की वस्तु समझते हैं । शायद वह मनुष्य को भी मारकर खाने की वस्तु समझते पर मनुष्य को मारकर खाना इतना सरल नहीं, इसलिए मनुष्य को छोड़ कर बाकि जीवों को खाना उन्होंने अपना धर्म बना लिया । चीता और शेर मांसाहारी प्राणी हैं वह दूसरे जीवों को मारकर खाते हैं ,केवल अपने पेट को भरने के लिए । किंतु हिसंक मनुष्य ऐसा जानवर है जो मूलतः शाकाहारी है, पर अपने जीभ के स्वाद के लिए प्राणियों को मारता है केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं बल्कि लाशों के व्यापार करके पैसे इकट्ठे करता है । कितने ही चतुर लोग ईश्वर अल्लाह और देवी देवताओं के नाम पर जीव हत्या कर उनको खाते हैं और कहते हैं इससे उनको पाप नहीं लगता । उन्होंने जीव हत्या के नाम कुर्बानी और बलि रख लिए हैं । परन्तु न तोह नाम बदलने से जीव हत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी और न ही तथाकथित ईश्वर और द...

साधना में निरन्तर उत्साह से लगे रहना ही सफलता की कुंजी है ।

जैसी लागी ओर की, वैसे निबहै छोर । कौड़ी कौड़ी जोड़ि के, पूँजी लक्ष करोर ।। किसी उद्देश्य या क्षेत्र में शुरू से लेकर अंत तक एक ही भाव से लगे रहने वाले बोहत कम लोग होते हैं, इसीलिए जीवन में सफलता बोहत कम लोगों को मिल पाती है । एक संगीतज्ञ से एक आदमी ने कहा कि मैं भी आपकी तरह महान संगीतज्ञ बनना चाहता हूँ तोह संगीतज्ञ ने कहा इसमें कुछ भी कठिन नहीं है तुम निरंतर लग्न से तीस पैंतीस साल संगीत में लगे रहिये आप निश्चित ही एक महान संगीतज्ञ बन जाओगे । जो अपने निश्चित लक्ष्य को पाने के लिए लगातार दीर्घ काल तक एक समान श्रम करता है वह एक दिन सफल हो जाता है । सन्तों की संगत पाकर लोग शुरू शुरू में भक्तिभाव में बोहत ओतप्रोत हो जाते हैं परन्तु थोड़े दिनों के बाद ही वह यह सब प्रायः भूल जाते हैं । कितने ही लोग साधना में बड़े उत्साह से लगते हैं पर उनका यह उत्साह ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाता । वह पुनः मन की मलिनता में घिर जाते हैं और कहने लगते हैं कि वैराग्य, भक्ति, आध्यात्म यह अब बकवास बातें हैं । जिस किसान को केवल फसल पाने में ही आनंद आता हो, किसानी में नहीं, जिस व्यापारी को केवल मुनाफ़े में आनंद आ...

मन के अहंकार को त्यागे बिना, सांसारिक त्याग सार्थक नहीं ।

माया तजे तोह क्या भया, जो मान तजा नहीं जाए ।  जेहि मान मुनिवर ठगे, सो मान सबन को खाए ।। इस साखी में कबीर साहिब ने साधु लोगों के अहंकार की बात की है । घर, परिवार, धन, दौलत को छोड़कर साधु बन गये और साधु बनकर अपने त्याग का अपने साधु होने का अहंकार पाल लेने से कोई फायदा नहीं होने वाला । साधु का वेष ही मृतक का चिन्ह है जिसमें पूरी विनम्रता होनी चाहिए । जो संसार से मर गया उसे क्या अहंकार हो सकता है । संसार में जीव देह को छोड़कर चला जाता है तब उसे मरना कहा जाता है । और साधु दशा में मन के सारे अहंकार जब समाप्त हो जाते हैं तब उसे साधुत्व कहा जाता है ।  परन्तु आश्चर्य है कि कितने लोग साधु का वेष धारण करने के बाद अहंकार की महामूर्ति हो जाते हैं । धन का नशा, विद्या का नशा, पद का नशा तो होता ही है पर त्याग का नशा भी आ जाता है । सारे नशे जीव को पतित करने वाले हैं । आप पुराण और महाकाव्यों को पढ़िये तोह पता चलेगा कि कैसे ऋषि मुनि छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे को श्राप देते, मारा मारी करते और एक दूसरे के आश्रम जला देते थे । वशिष्ठ विश्वामित्र का और विश्वामित्र वशिष्ठ का विध्वंस करते है...

मृत्यु परम सत्य है, पर मनुष्य इसे याद नहीं रखना चाहता ।

मूवा है मरि जाहुगे, मुये कि बाजी ढोल । सपन स्नेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल ।। मृत्यु जीवन का परम सत्य है, इसको झुठलाया नहीं जा सकता । किन्तु खेद है कि मनुष्य इसको झुठलाने में जीवन भर लगा रहता है । लोग मृत्यु को याद नहीं रखना चाहते । यदि कोई उनको मृत्यु की याद कराना चाहे तोह लोग नाख़ुश हो जाते हैं । किसी पुत्र जन्म या विवाह आदि के अवसर पर अगर कोई व्यक्ति मृत्यु का नाम ले लेवे तोह लोग कहते हैं कि चुप भी रहो भले आदमी, ऐसे मंगल अवसर पर किस अमंगल का नाम ले रहे हो । लोगों के लिए जन्म और विवाह ही मंगल मौके हैं और मृत्यु अमंगल है । याद रखो किसी जन्म या विवाह के मौके पर तोह हम उसकी गहमागहमी में माया मोह में भूल जाते हैं उलझे रहते हैं । जबकि किसी संगी साथी की मृत्यु के मौके पर हमारा मन संसार से कट कर शांत रहता है । लोग दुकान को बंद नहीं करते दुकान को बढ़ाते हैं । जब दुकान को बंद करने का समय हो तोह नौकर को बोल देते हैं कि दुकान बढ़ा दो , बंद करना अमंगल बात है इसलिए बोलते हैं दुकान को बढ़ा दो यह मंगल बात है । कितना मूर्ख हो चुका है व्यक्ति हर पल खुद को ही ठगे जा रहा है सत्य से भाग रहा है । शत...

धोखेबाज व अधूरे गुरूओं के मायाजाल से सावधान रहना चाहिए ।

साहु  चोर चीन्है नहीं, अंधा मति का हीन । पारख बिना विनाश है, कर विचार होहु भीन ।। जैसे श्रेष्ठी शब्द का अपभ्रंश होक सेठ शब्द बना है, वैसे ही साधु शब्द से साहु शब्द बना हुआ है । साहु का अर्थ होता है जो सत्य का व्यवहार करता है । सज्जन और ईमानदार को साहु कहते हैं । जो दूर दराज से माल लाकर लोगों में बेचता था और लोगों से माल लेकर दूर देश में बेचता था । उसके सत्य व ईमानदारी वाले व्यवहार के कारण उनको साहु व महाजन आदि नामों से पुकारा जाता था । पर इस बात का खेद है कि चोरी, बेईमानी के कारण आज उसी वर्ग को सबसे अधिक धोखेबाज, चोर व बेईमान समझा जाता है । यह सच है कि आज भी कितने ही व्यापारी व्यवहार में ईमानदार हैं पर चोर व बेईमान व्यापारियों के साथ उनको भी संदेह की दृष्टि से देखा जाता है । गुरू दर्जा तोह सर्वोच्च है । गुरू वह है जिसका ज्ञान सत्य हो, जिसका व्यवहार सत्य हो । पर खेद है कि गुरू के नाम से आजकल धंधेबाज और धोखेबाज अधिक हो गये हैं । वह अपने जादू से शिष्यों के सारे पाप काट देते हैं और ऋद्धि सिद्धि का दावा करके समाज को बेवकूफ बनाते हैं । वह अपने आप को ईश्वर के अवतार व प्रसिद्ध ...

ज्ञान रूपी हीरे को केवल योग्य मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है ।

हीरा तहां न खोलिए, जहाँ कुँजरों की हाट । सहजे गाँठि बांध के, लगिये अपनी बाट ।। कबीर साहिब ने इस साखी में ज्ञान को हीरे के रूप में पेश किया है और कहा है कि हीरे को केवल पारखी की पास ही खोलना चाहिए । कुँजरों की बाट यानी सब्ज़ी बेचने वालों का बाज़ार, अब सब्ज़ी मंडी में अगर कोई जौहरी अपनी हीरे की दुकान लगाकर बैठ जाए तोह उसके हीरे वहां नहीं बिक सकते । क्योंकि वहां आने वाले लोगों के पास इतना धन नहीं होगा और न ही हीरे की परख होगी कि वह हीरे को खरीद सकें । इसी तरह जो लोग मंत्र तंत्र साधना, बाहरी पूजा, कर्मकांड आदि में उलझे हुए हैं उनके सामने जड़ चेतन, आत्म ज्ञान आदि की बातें नहीं करनी चाहिए । उनके आगे अपनी समझ व शक्ति बर्बाद नहीं करनी चाहिए । उनको इन बातों से कोई लाभ नहीं होने वाला क्योंकि उनकी विवेक शक्ति ही शुन्य हो चुकी होती है वह मिथ्या भक्ति में बोहत उलझ चुके होते हैं । अब प्रश्न उठता है कि जब जन साधरण के सामने ज्ञान की बात नहीं करेंगे तोह उनकी जड़ बुद्धि समाप्त कैसे होगी । बोहत से जड़ बुद्धि वाले लोग ज्ञान की बात सुनकर अपने मिथ्या भक्ति के सिद्धांतों को त्याग देते हैं । इसका जवाब ...

मूर्ख को ज्ञान उपदेश देने का कोई फायदा नहीं होने वाला ।

मूर्ख को समझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । कोयला होय न ऊजरा, सौ मन साबुन लाय ।। कबीर साहिब ने इस साखी में एक सरल बात पर प्रकाश किया है । वह कहते हैं कि कभी मूर्ख मनुष्य को ज्ञान उपदेश दिया जाए तोह वह उससे लाभ नहीं लेने वाला बल्कि उल्टा इसका दुरुपयोग ही करेगा । वह अच्छी सीख का या तोह सामने ही मज़ाक उड़ा देगा या पीठ पीछे मज़ाक उड़ाएगा, हंसी करेगा । सीख के उल्टे आचरण वह जग में अपनी वरियता जाहिर करेगा । ऐसे लोगों को उपदेश देने से उपदेश देने वाले के मन में असंतोष आ सकता है, उसकी शान्ति भंग हो सकती है । मूर्ख को तोह को कुछ फर्क नहीं पड़ेगा पर उपदेश देने वाले की शांति भंग हो गयी, इसी को ज्ञान गाँठि का जाना कहा जाता है । आप सभी जानते ही हैं कि कोयला अंदर और बाहर से काला होता है, उसे सौ मन साबुन लगा कर पानी से धोया जाए तब भी कोयला ऊजला होने वाला नहीं है । मूर्खों की यही दशा है । वह भीतर से बाहर तक काले कोयले हैं । वह शुद्ध नहीं हो सकते, चाहे उनको लाख बार उपदेश दे दिया जाए । यह कहा जा सकता है कि कोयला तोह जड़ है, मनुष्य चेतन है, वह अपनी दृष्टि बदल दे तोह अवश्य सुधर जाएगा । यह तर्क ठीक है पर फिर...

मन रूपी हाथी को काबू करने के लिए विवेक रूपी अंकुश जरूरी है ।

मन मतंग गइयर हने, मनसा भई सचान । जंत्र मंत्र माने नहीं, लागी उड़ि उड़ि खान ।। ( मतंग - हाथी, गइयर- महावत, हने- मारता है, मनसा- इच्छाएं, सचान- बाज पक्षी) मन उन्मत्त हाथी के समान है यह जीव रूपी महावत को मारता रहता है । और इच्छाएं बाज पक्षी के समान हैं जो उड़ उड़कर जीवों को खाता रहता है । जीव अविनाशी चेतन है और मन एक आभ्यासिक वृति मात्र है । परन्तु जीव अपने स्वरूप को भूल कर दीन बन गया है और उसकी बनाई वृति ही उसपर सवार हो गयी है । महावत हाथी पर सवार होकर अंकुश से उसे काबू में रखता है, परन्तु जब हाथी उन्मत्त हो जाए तोह तोह वह महावत को गिराकर मार देता है । हाथी एक शक्तिशाली देह वाला है इसलिए वह महावत को मार सकता है, परन्तु मन कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं जो बलपूवर्क जीव को मार दे । मन तोह इसलिए जीव को परेशान करता है क्योंकि जीव अपना स्वरूप भूल कर विषयों का गुलाम बना रहता है । यदि जीव अपने स्वरूप को जान ले और अपने आप में स्थित हो जाए तोह मन उसका गुलाम हो जाएगा । जिसको स्वरूप ज्ञान हो जाता है वह इच्छाओं को छोड़ देता है और मन उसके अधीन हो जाता है । कबीर साहिब ने मन और उसकी इच्छाओं के उन्मत्त ...

सत, रज व तम तीनों गुणों पर विजय प्राप्त करो ।

तामस केरे तीन गुण, भँवर लेइ तहां बास । एकै डाली तीन फल, भाँटा ऊख कपास ।। तामस कहते हैं अंधकार को माया को । कबीर साहिब कहते हैं कि सत, रज और तम तीनों गुण माया के पेट में हैं । अर्थात एक माया की डाली पर यह तीन फल लगते हैं जो एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं । आप किसी एक शाखा पर भांटा, ऊख व कपास को लगा देखोगे तोह आश्चर्य ही होगा । माया और प्रकृति की डाली में यही बात है, इसमें परस्पर विरोधी तीन गुण एक साथ रहकर सृष्टि का संचालन करते हैं । आप जानते ही हैं तेल, बत्ती और आग तीनों परस्पर विरोधी होते हैं पर तीनों के मिलने से ही प्रकाश उत्पन्न होता है । इसी तरह सत, रज, और तम भी एक दूसरे के परस्पर विरोधी होते हुए भी संसार के कार्यों का संपादन करते हैं । साहिब कहते हैं कि जीव का मन भंवरा इसी त्रिगुणात्मक जगत के पदार्थों में गन्ध लेता रहता है । यह ठीक है कि सत, रज और तम तीनों गुणों के अलग अलग परिणाम हैं, पर है सभी क्षणिक । गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि सतोगुण उच्च गति को, रजोगुण मध्यम गति को और तमोगुण निम्न गति को ले जाते हैं । इसी लिए श्री कृष्ण अर्जुन को इन तीनों गुणों से अलग होकर सभी द्व...

ब्राह्मण कौन है और चमार कौन है ?

बड़े गये बड़ापने, रोम रोम हंकार । सतगुरू के परचै बिना, चारो वरण चमार ।। मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह है कि कि भौतिक पदार्थों का अहंकार करना । धन, विद्या, जाति, शरीर, जवानी, सौंदर्य आदि भौतिक पदार्थों में मनुष्य इतना डूबा हुआ रहता है कि इन क्षणिक वस्तुओं को लेकर इतराता रहता है । सारे अहंकार की जड़ शरीर है और इसके गलते तथा विनशते देर नहीं लगती । तोह मनुष्य किस चीज़ का अहंकार करता है । शरीर के छूटते ही सभी वस्तुओं से नाता छूट जाता है । फिर उसका क्या रह जाता है । कुछ कागज के टुकड़ों, ईट, पत्थरों को समेट कर मनुष्य खुद को धनी मान लेता है । पेट की ज्वाला शांत करने के लिए थोड़ा अन्न, तन ढकने के लिए दो कपड़े और सिर ढकने के लिए थोड़ी छत । जीवन निर्वाह के लिए यही सब ही तोह चाहिए होता है इससे ज्यादा समेट कर रखने का क्या फायदा , पर मनुष्य ज्यादा को समेट कर अपने आप को धनी समझता है । विद्या का क्या घमंड, कुछ काल्पनिक रूढ़ियों को भाषा व संकेतिक चिन्हों को लिपि कहते हैं इन्हीं को रट  रट कर विद्या का घमंड करने का क्या फायदा । सारी तथाकथित विद्यायें वस्तुओं को जानने समझने के लिए है । पशु पक्षी तोह ब...