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पूरे गुरू के प्रति समर्पित हो जाओ, अधूरे के प्रति नहीं ।


पूरा साहिब सेइये, सब विधि पूरा होये ।
ओछे से नेह लगाये के, मूलहु आवै खोय ।।

अपने स्वरूप के विषय में जिसे सच्चा ज्ञान है, व्यवहार बरतने की सम्यक समझ है और पवित्र रहनी में जो पूर्णयता चलता है वही पूरा साहिब है ।

इस संसार में कोई बिरला ही मनुष्य होता है जो सांसारिकता से उपराम होकर यह सोचता है कि मैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? मेरा और जगत का संबंध कैसा है ? और जीवन का लक्ष्य क्या है । ऐसा सोचने वाला जिज्ञासु व ज्ञान की इच्छावाला कहा जाता है । जब उसे किसी गुरू द्वारा इन सबका ज्ञान होता है तब उसे मुमुक्षु कहा जाता है यानी मोक्ष की इच्छा रखने वाला । इसलिए वह बन्धनों को छोड़ने का अभ्यास करता है । बन्धन हैं मन के विकार , मन के विकारों से ही इंद्रियों में गलत आदतें रहती हैं । जो इन सभी बन्धनों को तोड़ने के लिए सदैव प्रत्यनशील रहता है उसे कहते हैं साधक । ऐसे में कभी मन से जीत होती है तो कभी हार । जब अभ्यास करते करते व्यक्ति पूर्ण अनासक्त एवं चारों ओर से निष्काम हो जाता है तब वह संत हो जाता है । पूर्णत्व प्राप्त को सन्त कहते हैं । जब कुछ खाने पीने, घूमने, पाने, भोगने, जीने मरने की इच्छा नहीं रह जाती तब उस अवस्था को पूर्ण कहा जाता है ।  ऐसा व्यक्ति खाना पीना घूमना आदि केवल शारिरिक यात्रा को पूर्ण करने के लिए करता है । वह किसी वस्तु में आसक्त नहीं होता । बल्कि हर वस्तु से अनासक्त होकर पूर्णयता शांत हो चुका होता है उसे कहते हैं पूरा साहिब ।
कबीर साहिब कहते हैं ऐसे पूरे साहिब की सेवा करो, ऐसे साहिब के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ, उसकी सेवा करो उसके बताए मार्ग की उपासना करोगे तो तुमारा भी कल्याण हो जाएगा ।

पूरे साहिब एवं पूरे गुरू का व्यक्तित्व अमृत से भरा होता है । पूरे गुरू के व्यक्तित्व से हर समय मानो अमृत रस चुकता है । साधक जब निष्पक्ष और कपट रहित भाव से जब पूरे गुरू को समर्पित हो जाता है तोह उसमें गुरुत्व अपने आप आना शुरू हो जाता है ।

यदि शिष्य स्वयं ही अधूरा है उसके अंदर लग्न नहीं है तो वह पूरे गुरू की शरण में आकर भी उससे कोई लाभ नहीं ले पाता । परन्तु यदि वह कल्याण के लिए समर्पित है तोह पूरा गुरू पाकर कृतार्थ हो जाता है । पूरे गुरू के प्रति समर्पित शिष्य भी पूरे गुरू की भांति निष्काम, विकार रहित और सांसारिक वस्तुयों से अनासक्त हो जाता है ।

यदि अधूरा गुरू मिल जाए तोह उसकी शरण में जाकर साधक का विवेक भी खो जाता है । जिसे अपने स्वरूप का बोध नहीं, यदि कुछ ज्ञान है तो रहनी नहीं है, जो गुरू स्वयं मन के विकारों में अशांत है इंद्रियों का गुलाम है । यदि साधक ऐसे गुरू की संगत करेगा ऐसे गुरू से प्रेम करेगा तोह उसका अपना विवेक भी जाता रहेगा । मनुष्य कर कल्याण का मूल है विवेक । कुसंग से विवेक का नाश होता है और सत्संग से विवेक जागृत होता है । पूरे गुरू की शरण में ही विवेक जागेगा अधूरे गुरू की शरण से विवेक का नाश हो जाएगा । इसलिए साधक को बड़ी सूझ के साथ पूरे गुरू की खोज कर उसकी शरण लेनी चाहिए और उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए । मानव जन्म बार बार नहीं मिलता, मानव जन्म पाकर इसको अधूरे गुरू के चक्कर में पड़कर व्यर्थ गवा दिया तो जीव को विभिन्न योनियों में भटकना पड़ेगा ।
झूठे गुरू के पक्ष को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ।।
सच्चे गुरू के पक्ष में, दीजै मन ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया, न आवै न जाय ।।
सतगुरू मदन साहिब ने पूरे गुरू के बारे में कहा है :-
सोइ गुरू पूरा कहावै, जो दो अक्षर का भेद बतावै ।
एक छुड़ावै एक मिलावै, तो प्राणी निज घर को जावै ।।
अर्थात पूरा गुरू वह है जो अक्षरों का भेद बता दे एक अक्षर है जो बावन में आता है जिसे लिखा पढ़ा जा सकता है और दूसरा है निःअक्षर जो बावन से परे है । जो यह भेद बता दे और लिखने वाले अक्षरों से नाता तोड़ कर निःअक्षर से नाता जुड़वा दे, वही पूरा गुरू है और उसी की शरण में जाने से कल्याण होगा ।
साहिब बंदगी

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