समुझाए समझे नहीं, पर हाथ आप बिकाय ।
मैं खैंचत हूँ आपको, चला सो यमपुर जाए ।।
भावार्थः कबीर साहिब इस साखी में बोल रहे हैं कि मनुष्य समझाने पर भी नहीं समझता, वो पराये हाथों में खुद को बेच रहा है । मैं तो उसी अपनी ओर खींचता हूँ कि सारी मान्यताओं को छोड़ कर अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाओ । पर वह वासना रूपी यमपुर में जा रहा है ।
व्याख्या : "पर हाथ आप बिकाय" साहिब का यह वचन बोहत वज़नदार है । मनुष्य अपने आप को दूसरों के हाथ बेचता है । वह समझता है कि मेरे स्थाई सुख का साधन कोई दूसरा है । मनुष्य ने इंद्रियों के भोगों के लाभवश अपने आप को दूसरों के हाथों में बेच दिया । उसने प्राणी पदार्थो, मैथून, मोह, माया, नशा, नाच, रंग, जंत्र, मन्त्र पता ही नहीं कितनी जगहों पर खुद को बेच दिया है । मनुष्य ने अपने आप को स्व वश न करकर पर वश कर दिया है । पर परवशता ही सब प्रकार का दुख है और स्ववश ही सब सुख है । बस यही सुख दुख की परिभाषा है । स्व वश से अर्थ है मन इन्द्रियों को अपने वश में रखना । परंन्तु मनुष्य ने तो अपने आप को इनके हाथों ही बेच दिया है । उसे समझाया जाए तो भी नहीं समझता, उसके मन में जो भ्रम की मान्यताओं की आसक्ति गड़ गयी है उससे निकलना कठिन हो जाता है ।
कबीर साहिब कहते हैं, " मैं खैंचत हूँ आपको, चला सो यमपुर जाए " मैं लोगों को अपनी ओर खींचता हूँ पर लोग क्या है यमपुर की ओर जा रहे हैं । गुरू जीव को अपनी ओर खींचते हैं । अपनी ओर है स्वरूप स्थिति और यमपुर है वासनाओं का समूह । गुरू के वचनों को ध्यान देकर कोई विरला जीव ही अपनी स्वरूप स्थिति की ओर जाता है । शेष तोह यमपुर की ओर ही जाते हैं । लोग मान्यताओं और वासनाओं के जाल में जीवनभर उलझे मन की धार में बहते रहते हैं । जो मन की धार से निकल कर अपने स्वरूप में स्थित है वह जीव धन है । मन की धारा से निकलना ही गुरू की ओर जाना है, मन की धारा से निकलना ही अपने स्वरूप स्थिति में जाना है । "सहजे हीरा नीपजै, जब मन आवै ठौर " ।
साहिब बंदगी
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