Skip to main content

Posts

Showing posts from May, 2018

मनुष्य देह बोहत दुर्लभ है, यह आसानी से नहीं मिलती ।

मानुष जन्म दुर्लभ है, बहुर न दूजी बार । पक्का फल जो गिर पड़ा, बहुर न लागै डार ।। इस संसार रूपी भवसागर में अनेकों देह हैं जिसे चौरासी कहा जाता है, जैसे पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, मनुष्य आदि । पर मनुष्य को छोड़कर सभी देह केवल भोग योनियां हैं, इनमें सोचने समझने का विवेक नहीं होता । जीव आत्मा को कर्मानुसार अलग अलग देह में भटकना पड़ता है, केवल मनुष्य देह में आकर ही जीव इस भवसागर को पार कर सकता है । इस साखी में कबीर साहिब ने इसी बात पर जोर दिया है कि यह मनुष्य देह बोहत दुर्लभ है, इसी में जीव आत्मा की कल्याण साधना हो सकती है । इस मनुष्य देह को पाकर इसे विषयों विकारों में मत गवाओ, मनुष्य देह मिलना बोहत कठिन है । जो मनुष्य देह पाकर इसे पशुओं की भांति विषय भोगने में गवा देता है वह कितना भोला व नासमझ है । मनुष्य देह की दुर्लभता को कबीर साहिब एक पेड़ के पक्के फल से समझाते हुए कहते हैं कि जैसे पेड़ से पक्का हुआ फल गिर पड़ता है और वापिस पेड़ पर नहीं लगता, उसी तरह जब जीव देह को छोड़ देता है तोह वापिस पुनः उसी देह में प्रवेश नहीं कर सकता । दूसरा मानव जन्म मिलना भी आसान नहीं है, जब उसके अच्छे कर्मों...

मन की चंचलता को जीतो ।

बाज़ीगर का बांदरा, ऐसे जीव मन के साथ । नाना नाच नचाये के, ले राखे अपने हाथ ।। जैसे बाज़ीगर बन्दर को नचाता है उससे नाना तरह के खेल कराता है, यही स्थिति जीव की हो गयी है जो मन के वश में आकर मन के अनुसार नाचता रहता है । जीव स्वतंत्र चेतन है, मन एक आभास मात्र है । परन्तु कैसा आश्चर्य है सत्य चेतन जीव असत्य मन के हाथ बिक गया है । बाज़ीगर बन्दर को अपनी डोरी से बांध कर रखता है, फिर उससे कई तरह के खेल करवाता है । खेद है कि ऐसे मन जीव को अपनी आसक्ति की डोरी में बांध कर रखता है और जीव को अपनी इच्छा अनुसार नचाता है । आप देखते नहीं, कैसे पढ़े लिखे सभ्य लोग बीड़ी सिगरेट, शराब, तम्बाकू आदि की आदत बना लेते हैं । और उसकी आसक्ति में सदैव अपने मन की गुलामी करते हैं । वह समझते भी हैं कि यह सब गलत है इसके दुष्परिणाम हैं फिर भी अपने मन को नहीं रोक पाते । इसी प्रकार बीड़ी सिगरेट शराब आदि की आसक्ति में बंधा मनुष्य पूरी जिंदगी मन के अनुसार नाचता रहता है । यह विषय की इच्छाएं ही तोह जीव को नाना नाच नचवाती हैं । यदि जीव विषयों की इच्छा को छोड़ दे तोह कौन उसे विवश कर सकता है । जीव का अपना स्वरूप शुद्ध चेतन का...

सार शब्द को लेकर मन में आती उलझनों का निवारण

वस्तु कहिं खोजे कहिं, केहि विधि आवै हाथ । कहे कबीर तभी पाइये, जब भेदी देवे साथ ।। कबीर साहिब के जिज्ञासु भगत सार शब्द को लेकर उलझन में रहते हैं कि सार शब्द किस गुरू से मिलेगा ? तोह साहिब के भगतो एक बात जान लो कि सार शब्द कहते हैं निचोड़ को जो सबका निचोड़ है सार है, उससे आगे कुछ नहीं है । जैसे दूध का सार घी है और यह सार शब्द कोई दुनिया की वस्तु नहीं कि जो आप गुरू के पास गये और गुरू ने आपको पकड़ा दी कि यह लो बेटा यह है सार शब्द । गुरू का काम है राह बताना चलना आपको ही है गुरू आपको पहले से तय की गयी मंजिल नहीं देने वाला । तोह सार शब्द का भेदी गुरू होता है सार शब्द देने वाला कोई गुरू नहीं है । सार शब्द एक गुप्त खज़ाना है गुरू आपको उस ख़ज़ाने तक पहुंचने का भेद देगा, अब खज़ाना लाने आपको ही जाना है, गुरू आपके लिए खज़ाना लाने नहीं जाने वाला । गुरू ने आपको भेद दे देना है कि यहाँ से खुदाई करो आपको पानी मिलेगा । अब खुदाई आपको ही करनी है आप कितने दिन में करोगे कितनी मेहनत से करोगे यह सब आप पर निर्भर है । गुरू आपके लिए खुदाई नहीं करने वाला । गुरू आपको दूध से घी बनाने की विधि बता सकता है घी आपको ह...

पूरे गुरू के प्रति समर्पित हो जाओ, अधूरे के प्रति नहीं ।

पूरा साहिब सेइये, सब विधि पूरा होये । ओछे से नेह लगाये के, मूलहु आवै खोय ।। अपने स्वरूप के विषय में जिसे सच्चा ज्ञान है, व्यवहार बरतने की सम्यक समझ है और पवित्र रहनी में जो पूर्णयता चलता है वही पूरा साहिब है । इस संसार में कोई बिरला ही मनुष्य होता है जो सांसारिकता से उपराम होकर यह सोचता है कि मैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? मेरा और जगत का संबंध कैसा है ? और जीवन का लक्ष्य क्या है । ऐसा सोचने वाला जिज्ञासु व ज्ञान की इच्छावाला कहा जाता है । जब उसे किसी गुरू द्वारा इन सबका ज्ञान होता है तब उसे मुमुक्षु कहा जाता है यानी मोक्ष की इच्छा रखने वाला । इसलिए वह बन्धनों को छोड़ने का अभ्यास करता है । बन्धन हैं मन के विकार , मन के विकारों से ही इंद्रियों में गलत आदतें रहती हैं । जो इन सभी बन्धनों को तोड़ने के लिए सदैव प्रत्यनशील रहता है उसे कहते हैं साधक । ऐसे में कभी मन से जीत होती है तो कभी हार । जब अभ्यास करते करते व्यक्ति पूर्ण अनासक्त एवं चारों ओर से निष्काम हो जाता है तब वह संत हो जाता है । पूर्णत्व प्राप्त को सन्त कहते हैं । जब कुछ खाने पीने, घूमने, पाने, भोगने, जीने मरने की इच्छा नहीं र...

भेड़ों के झुंड न बनो, पारख विवेकी बनो ।

कैसी गति संसार की, ज्यों गाडर की ठाट । एक पड़ा जो गाड़ में, सबै गाड़ में जात ।। कबीर साहिब इस साखी में कह रहे हैं कि संसार मे लोगों की दशा भेड़ों के झुंड जैसी है । यदि एक भेड़ गड्ढे में गिर जाए तोह उसके पीछे सारी भेड़ें गड्ढे में गिरती चली जाती हैं । विस्तार से जानते हैं, एक आदमी ने कहा कि अमुक व्यक्ति पानी में फूंक मारकर या छू कर देता है, तोह उस पानी के सेवन से सभी ऋद्धि सिद्धियां मिलती हैं । तोह इस बात के पीछे पढ़, अनपढ़, गांव वाले, शहरी सभी लाइन लगा के खड़े हो जाते हैं । तांत्रिक, सोखा, ओझा, बाबा, ज्योतिष आदि जो खुद को महात्मा घोषित किये हुए होते हैं, संसार के लोगों को मूर्ख बना ठगने में लगे रहते हैं । और इनके पीछे मूर्खों की लाइन लगी रहती है । जिसमें सामान्य जनता से लेकर प्रोफेसर, अधिकारी, उच्च अधिकारी, नेता, मंत्री, आचार्य, वेदाचार्य आदि सब भेड़ बने गड्ढे में गिरते हैं । कर दो हल्ला कि अमुक गांव में , वन में, पेड़ के नीचे कोई देवी निकली है, देवता निकला है तोह देखते ही देखते वहां मूर्खों की भीड़ पहुँचने लगेगी और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए अपना तन मन धन समर्पण करने लगेगी । अमुक ...

कबीर साहिब की इस साखी को अवश्य पढ़ें, मनुष्य समझाने पर भी नहीं समझता ।

समुझाए समझे नहीं, पर हाथ आप बिकाय । मैं खैंचत हूँ आपको, चला सो यमपुर जाए ।। भावार्थः कबीर साहिब इस साखी में बोल रहे हैं कि मनुष्य समझाने पर भी नहीं समझता, वो पराये हाथों में खुद को बेच रहा है । मैं तो उसी अपनी ओर खींचता हूँ कि सारी मान्यताओं को छोड़ कर अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाओ । पर वह वासना रूपी यमपुर में जा रहा है । व्याख्या : "पर हाथ आप बिकाय" साहिब का यह वचन बोहत वज़नदार है । मनुष्य अपने आप को दूसरों के हाथ बेचता है । वह समझता है कि मेरे स्थाई सुख का साधन कोई दूसरा है । मनुष्य ने इंद्रियों के भोगों के लाभवश अपने आप को दूसरों के हाथों में बेच दिया । उसने प्राणी पदार्थो, मैथून, मोह, माया, नशा, नाच, रंग, जंत्र, मन्त्र पता ही नहीं कितनी जगहों पर खुद को बेच दिया है । मनुष्य ने अपने आप को स्व वश न करकर पर वश कर दिया है । पर परवशता ही सब प्रकार का दुख है और स्ववश ही सब सुख है । बस यही सुख दुख की परिभाषा है । स्व वश से अर्थ है मन इन्द्रियों को अपने वश में रखना । परंन्तु मनुष्य ने तो अपने आप को इनके हाथों ही बेच दिया है । उसे समझाया जाए तो भी नहीं समझता, उसके मन में जो...

मनुष्य को कुसंग का त्याग करना चाहिए, इसी में उसकी भलाई है ।

मारी मरे कुसंग की, केरा साथे बेर । वै हालैं वै चींधरें, बिधिना संग निबेर ।। भावार्थः मनुष्य कुसंग की मार से उसी प्रकार मरता है जैसे केले के पेड़ के साथ बेर का पेड़ लग जाने से केले के पेड़ की दशा होती है । केले के पत्ते हिलते हैं और बेर के कांटे उनको चीर फाड़ देते हैं । है अपने कर्मों के विधाता मनुष्य तू कुसंग का त्याग कर । व्याख्या: मनुष्य का ज्यादा पतन कुसंग के कारण ही होता है । मांस, मदिरा, गुटखा, नशा, चोरी, दुराचार आदि की बुरी आदतें कुसंग के कारण ही लगती हैं । अच्छे अच्छे लोग कुसंग में पड़कर भ्र्ष्ट हो जाते हैं । कबीर साहिब ने इस साखी में केला और बेर का सटीक उदाहरण देकर बोहत ही अच्छे से समझाया है । केला कितना कोमल और चिकना पेड़ होता है सभी जानते हैं । उसके फल भी स्वादिष्ट और तृप्तिकर होते हैं । उसके पेड़ की स्वच्छता और उच्चता के कारण उसका उपयोग मांगलिक कार्यों में किया जाता है । केले के पेड़ व पत्ते गाड़कर भारत में पूजा के मंडप बनाये जाते हैं ।  ऐसे कोमल और चिकने केले के पेड़ के साथ बेर का पेड़ उग पड़े और बड़ा होकर केले के ऊपर फैल जाए तोह केले के पेड़ की क्या दशा होती है यह सर्वव...